卐 दादूराम~सत्यराम 卐
.
*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
चतुर्दश दिन
.
देवल में इक है अस देवा,
झालर शंख बिना तिहिं सेवा ।
शंकर हैं कैलाश निवासी,
नहिं, आत्मा सखि ! सब घट वासी ॥१५॥
आ. वृ. - “मंदिर में एक ऐसा देवता है कि उसकी पूजा भी बिना शंख झालर के ही हो जाती है । बता वह कौन है ? ’’
वा. वृ. - “यह तो कैलाश निवासी शंकर हैं । भगवान् शंकर की पूजा सब लोग बिना शंख झालरादि के भी करते देखे जाते हैं ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सब शरीरों में रहने वाला आत्मा रूप देव है । आत्मा की पूजा के लिये शंखादिक की कोई आवश्यकता नहीं । आत्म पूजा तो आत्म स्थिति से ही होती है । तू भी अपनी बुद्धि को स्थिर करके आत्म देव की पूजा किया कर, ऐसा करने से शीघ्र ही भेद भावना दूर हो जायगी ।’’
.
एकमेक इक इक के मांही,
काटे उसे कटत वह नांही ।
अग्नि काष्ठ है मैं पहचानी,
देहात्मा सखि ! तू नहिं जानी ॥१६॥
वा. वृ. - “एक, एक में एकमेक होकर रहता है और जिसमें रहता है, उसे काटने से वह नहीं कटता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “मैं पहचान गई, ये तो अग्नि और काष्ठ हैं । अग्नि काष्ठ एकमेक होकर रहता है, भिन्न रूप नहीं दीखता और काष्ट को काटने पर कटता भी नहीं ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो देह और आत्मा है । आत्मा देह से एकमेक होकर ही रहता है तथा अज्ञानियों को देह से भिन्न नहीं भासता और देह के काटने से कटता भी नहीं । यदि तू इस न कटने वाले, न गलने वाले न सूखने वाले, न जलने वाले आत्मा का चिन्तन करेगी तो तुझे स्वरूप ज्ञान द्वारा अभेद निष्ठा प्राप्त होकर के तेरी बुद्धि के सभी भेद नष्ट हो जायँगे ।’’
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें