रविवार, 27 अप्रैल 2014

= ११० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू बुरा न बांछै जीव का, सदा सजीवन सोइ । 
परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होइ ॥ 
सतगुरु संतों की यह रीत, आत्म भाव सौं राखैं प्रीत । 
ना को बैरी ना को मीत, दादू राम मिलन की चीत ॥ 
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साभार : बिष्णु देव चंद्रवंशी ~ 
*-----●●●●|||| स्वयं बिचार करें ||||●●●●-----* 

निश्चय ही, मनुष्य को फलरूप में जो कुछ भी भला-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल प्राप्त हो रहा है, वह उसके अपने ही किये हुए कर्म का फल है; दूसरे तो केवल निमित्तमात्र हैं । अतएव उन पर रोष करके उनके प्रति मन में द्वेष को स्थान नहीं देना चाहिए । वे तुम्हारा बुरा करने जाकर वस्तुत: अपना ही बुरा कर रहे है - अपने लिए आप ही दुखों का निर्माण कर रहे हैं; अतएव दया के पात्र हैं । 
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फिर तुम्हारे मन में द्वेष होगा तो तुम अन्दर-ही-अन्दर जलते रहोगे, द्वेषाग्नि जलाया करती है और द्वेषवश उनको हानि पहुँचाने की चेष्टा करोगे, जिससे वैर बद्धमूल होगा, तुम्हारे चित्त की अशान्ति बढ़ेगी और तुम्हारी साधन-शक्ति, जो अपने तथा दूसरों के मंगल-सम्पादन में लगती, अमंगल में लगकर सब ओर अमंगल की सृष्टि करती रहेगी । 
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सर्वोत्तम तो यह है कि बुरा करनेवाले का भला करने कि चेष्टा करके तुम अमृत वितरण करो, उसके मन के विष को नष्ट कर दो । यही संत का आदर्श है- मनुष्य को सदा मंगल सोचना तथा मंगल-कार्य करना चाहिए । प्राणिमात्र का मंगल सोचने, करने वाले का कभी अमंगल नहीं होता । उसका प्रत्येक श्वास मंगलमय बन जाता है । उससे सूर्य से प्रकाश की भान्ति सहज ही सब को मंगल प्राप्त होता है । उसका बुरा चाहने वालों का मन भी उसकी मंगलमयता से प्रभावित होकर बदल जाता है । वह कहीं कदाचित ऐसा भी हो तो उसका अपना अमंगल तो होता ही नहीं । वहीं बड़ा लाभ है । 
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अतएव तुम मन में भली-भान्ति सोचकर, दूसरे तुम्हारा अहित - अमंगल कर रहे हैं, इस मान्यता को छोड़कर कभी किसी का बुरा मत चाहो । अपने मन को तथा क्रिया को अपना तथा सब का भला सोचने करने में लगाकर सब को सहज ही मित्र बनाने का मार्ग स्वीकार करो । शक्ति का सदुपयोग करके उससे लाभ उठाओ । कभी उसका दुरूपयोग मत करो । जो संकट आया है, उसे भगवान् का मंगल-विधान मानकर स्वीकार करो । उसे टालने की न्याययुक्त चेष्टा करो । इसके लिए प्रधान उपाय है - 'सच्चे विश्वास के साथ भगवान् से कातर प्रार्थना ।' पर ध्यान रहे, प्रार्थना में कभी भी दूसरों का अमंगल न हो । बुद्धि को स्थिर रखकर भगवान् से यही प्रार्थना करो कि 'नाथ ! किसी का भी कभी तनिक भी अमंगल हो ऐसा विचार मेरे मन में कभी न आये, ऐसी चेष्टा मुझ से कभी न बन पड़े । सब का मंगल हो एवं उसी के साथ मेरा भी मंगल हो । मुझ पर जो कष्ट आया है उसे आप हरण कर लें ।

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