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श्री दादूवाणी आनन्दलहरी ४~१०
http://youtu.be/YnPsKnUQ_2Q
श्री दादूवाणी आनन्दलहरी ४~१०
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परिचय का अंग ~ ४(१०)
ज्यों घट आत्म एक है, ऐसे होंहि असंख ।
भर भर राखै रामरस, दादू एकै अंक ॥ ३२३ ॥
ज्यों ज्यों पीवै राम रस, त्यों त्यों बढै पियास ।
ऐसा कोई एक है, बिरला दादू दास ॥ ३२४ ॥
राता माता राम का, मतवाला मैमंत ।
दादू पीवत क्यों रहै, जे जुग जांहि अनन्त ॥ ३२५ ॥
दादू निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास ।
तिहि रस राता प्राणिया, माता प्रेम पियास ॥ ३२६ ॥
रोम रोम रस पीजिए, एती रसना होइ ।
दादू प्यासा प्रेम का, यों बिन तृप्ति न होइ ॥ ३२७ ॥
तन गृह छाड़ै लाज पति, जब रस माता होइ ।
जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़े कोइ ॥ ३२८ ॥
आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥ ३२९ ॥
पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥ ३३० ॥
दादू अंतर आत्मा, पीवै हरि जल नीर ।
सौंज सकल ले उद्धरै, निर्मल होइ शरीर ॥ ३३१ ॥
दादू मीठा राम रस, एक घूँट कर जाऊँ ।
पुणग न पीछे को रहे, सब हिरदै मांहि समाऊँ ॥ ३३२ ॥
चिड़ी चंचु भरि ले गई, नीर निघट नहिं जाइ ।
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया मांहि समाइ ॥ ३३३ ॥
दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाइ ।
पलक एक पावै नहीं, तो तबहिं तलफ मर जाइ ॥ ३३४ ॥
दादू राता राम का, पीवै प्रेम अघाइ ।
मतवाला दीदार का, मांगै मुक्ति बलाइ ॥ ३३५ ॥
उज्जवल भँवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवै निर्मल वासना, सो दादू निज दास ॥ ३३६ ॥
नैनहुँ सौं रस पीजिये, दादू सुरति सहेत ।
तन मन मंगल होत है, हरि सौं लागा हेत ॥ ३३७ ॥
पीवै पिलावै राम रस, माता है हुसियार ।
दादू रस पीवै घणां, औरों को उपकार ॥ ३३८ ॥
नाना विधि पिया राम रस, केती भाँति अनेक ।
दादू बहुत विवेक सौं, आत्म अविगत एक ॥ ३३९ ॥
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवै ।
मतवाला माता रहै, यों दादू जीवै ॥ ३४० ॥
परिचय का पय प्रेम रस, पीवै हित चित लाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥ ३४१ ॥
परिचय पीवै राम रस, युग युग सुस्थिर होइ ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागै कोइ ॥ ३४२ ॥
परिचय पीवै राम रस, सो अविनाशी अंग ।
काल मीच लागै नहीं, दादू सांई संग ॥ ३४३ ॥
परिचय पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥ ३४४ ॥
परिचय पीवै राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कुछ व्यापै नहीं, ते छूटे संसार ॥ ३४५ ॥
अमृत भोजन राम रस, काहे न विलसै खाइ ।
काल विचारा क्या करै, रम रम राम समाइ ॥ ३४६ ॥
दादू जीव अजा बिघ काल है, छेली जाया सोइ ।
जब कुछ बस नहीं काल का, तब मीनी का मुख होइ ॥ ३४७ ॥
मन लवरू के पंख हैं, उनमनि चढै आकास ।
पग रहि पूरे साच के, रोपि रह्या हरि पास ॥ ३४८ ॥
तन मन वृक्ष बबूल का, कांटे लागे सूल ।
दादू माखण ह्वै गया, काहू का स्थूल ॥ ३४९ ॥
दादू संषा शब्द है, सुनहाँ संशा मारि ।
मन मींडक सूं मारिये, शंका सर्प निवारि ॥ ३५० ॥
दादू गांझी ज्ञान है, भंजन है सब लोक ।
राम दूध सब भरि रह्या, ऐसा अमृत पोष ॥ ३५१ ॥
दादू झूठा जीव है, गढिया गोविन्द बैन ।
मनसा मूंगी पंखि सौं, सूरज सरीखे नैन ॥ ३५२ ॥
सांई दीया दत घणां, तिसका वार न पार ।
दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥ ३५३ ॥
दिव्य प्रेरणा ~ महंत महामंडलेश्वर सन्त श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
साभार ~ अखिल भारतीय श्री दादू सेवक समाज, दिल्ली
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