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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*काल का अंग २५/९*
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*वायु भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशे देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥९॥*
दृष्टांत -
पेट बन्ध भया बादशाह, वायु सरे दू राज ।
फक्कड़ छूड़ाई तीन बर, राज लेहु क्या काज ॥१॥
एक बादशाह की अपान वायु रुक जाने से पेट फूल गया । उससे बड़ी व्यथा हो रही थी । अतः उसने कहा - कोई मेरे पेट में रुके हुये वायु को बाहर निकाल दे तो मैं उसे राज्य दूंगा । यह सुनकर एक फक्कड़ आया और उसने बादशाह से पवनमुक्तासन कराकर उसे के पेट के वायु को पेट से बाहर निकाल दिया ।
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पेट का आफरा उतरते ही बादशाह ने फक्कड़ से कहा - लो राज्य । फक्कड़ ने कहा - हमें राज्य से क्या काम है ? हम तो भगवद् भजन करने वाले हैं, उसमें राज्य विघ्न रूप है । हम नहीं लेते । सोई उक्त ९ की साखी में कहा है कि वायु भरे इस शरीर का क्या भरोसा है । उक्त बादशाह के समान यह क्षण में ही नष्ट होने वाला है । अतः देहाभिमान त्यागकर हरि भजन ही करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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