#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*सुन्दरी का अंग ३०*
.
*अन्य लग्न व्यभिचार ~*
*पुरुष पुरातन छाड़ कर, चली आन के साथ ।*
*सो भी संग तैं बीछुट्या, खड़ी मरोड़ै हाथ ॥१७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सुरति रूप सुन्दरी, ‘‘पुरुष पुरातन छाड़ कर’’ कहिये, विशुद्ध समष्टि चेतन रूप ब्रह्म की उपासना त्याग कर, और कल्पित देव आदिकों की आराधना में वृत्ति रूप सुन्दरी, लगकर चली । किन्तु वे भी अन्त में बिछुड़ गये । अब तो निश्चय ही मनुष्य शऱीर और मोक्ष से वंचित रहकर वृत्तिरूप सुन्दरी हाथ मसलती है ॥१७॥
अर्थात् सात फेरों के पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ प्रीति करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री, व्यभिचारी पुुरुष के साथ चली जाती है । परन्तु यह भी उसको व्यभिचारिणी जानकर त्याग देता है फिर वह खड़ी - खड़ी हाथ मसल कर रोती है ।
अपना पति तिय मार के, चली जार के संग ।
नदी पार सब ले गयो, नग्न फिरे जल ढिंग ॥
दृष्टान्त ~ एक स्त्री ने अपने पति से असंतुष्ट रहकर दूसरे जार पुरुष के साथ प्रीति कर ली । वह उसको बोली कि अपन दोनों इस नगर से भाग निकलें और किसी अन्य नगर में चलकर रहें । वह बोला ~ तेरा पति पीछा करके हम लोगों को पकड़वा देगा, तब क्या करोगी ? स्त्री बोली ~ मैं उसको जान से मार देती हूँ । सूते हुए पति की गर्दन पर एक तलवार मारी और टुकड़े कर दिये । सब माल घर का धन - कपड़े वगैरा बांधकर जार के साथ चल पड़ी ।
आगे गये तो रास्ते में एक नदी बह रही थी । वह पुरुष बोला कि तेरे सब कपड़े बदन के भी उतार कर कपड़ों के साथ बांध दे । मैं यह सब परले किनारे रख आता हूँ । फिर आकर तुझे भी परले किनारे ले चलूँगा । वह सब कपड़े लेकर नदी पार उतर गया और आगे मार्ग - मार्ग जाता इसे दिखाई पड़ा । इसने आवाज दी कि मुझे तो ले चल । तब वह बोला ~ कि दुष्टा तैंने अपने खसम के दो टुकड़े कर दिये, अब तूँ नंगी ही फिरती रह, यही तुझे तेरा दण्ड है । मुझे मारने में तुझे क्या देर लगेगी ? फिर जल के किनारे नंगी ही घूमने लगी ।
इतने में ही सवेरा हो गया । एक गीदड़ जंगल से मांस का टुकड़ा मुँह में लिये हुए नदी पर जल पीने आया । गीदड़ को मछली दिखाई दी. वह मांस का टुकड़ा डालकर मछली पकड़ने दौड़ा, मांस के टुकड़े को चील उठा ले गई और मछली पानी में कूद गई । तब जार स्त्री बोली -
रे रे जंबुक दुर्बुद्धे ! मत्स्यो जले निमग्नतः ।
स्व मुखस्य - मांसं त्यक्त्वा, तदाकाशं किं पश्यसि ॥
इतना सुन कर जबुंक बोला -
पश्यति परदोषं च, निज दोषो न पश्यति ।
न जारो न स्वभर्त्ता च जले तिष्ठति नग्निका ॥
.
*सुन्दरी विलाप*
*सुन्दरी कबहूँ कंत का, मुख सौं नाम न लेइ ।*
*अपने पीव के कारणैं, दादू तन मन देइ ॥१८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पतिव्रता सुन्दरी अपने पति का कभी अपने मुँह से नाम नहीं लेती है । और अपना तन - मन सब पति की सेवा में न्यौछावर कर देती है । पति की आज्ञा बिना कभी बाहर नहीं जाती ॥१८॥
अर्थात् संतवृत्ति रूप सुन्दरी, कभी भी परम पुरुष ब्रह्म का, मुख से नाम उच्चारण में नहीं लगी रहती हैं, किन्तु ब्रह्म प्राप्ति के लिये, तन - मन के सब विकारों को छोड़कर और अपने सहित सब को ब्रह्म में लीन करती है ।
अन्तर नेष्टि नृपति, ज्यूं राम जपत तिय जाण ।
धन वारत उछव कियो, सुनत तजै नृप प्राण ॥
दृष्टान्त ~ एक राजा अन्तर्निष्ठ थे । उनकी रानी बड़ी पतिव्रता और ईश्वर भक्त थी । जब उसने राजा की ईश्वर प्राप्ति की धारणा कुछ भी नहीं देखी, तब मन में सोचने लगी कि राजा का उद्धार किस प्रकार होगा । एक रोज राजा से बोली ~ पतिदेव, आप भी ईश्वर - भक्ति, दान - धर्म, तीर्थ - व्रत आदि किया करो । राजा बोले ~ यह सब तो तुम करती हो, मेरी क्या आवश्यकता है ?
रानी के मन में बहुत दुःख हुआ कि राजा तो बिल्कुल नास्तिक है । तब ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि हे परमेश्वर ! एक रोज तो आप, राजा के मुँह से राम नाम का उच्चारण कराइये । मेरी यही इच्छा है कि आपके नाम को मैं अपने श्रोत्र से सुनूं । फिर बोली ~ हे नाथ ! यदि जागृत में राजा आप का नाम नहीं लेता है, तो स्वप्न में ही आपका नाम, राजा के मुँह से निकालिये । रानी दिन में सो लेती और रात में राजा के चरणों की सेवा बैठी - बैठी करती रहती और मन में यही भावना रखती कि कभी ईश्वर मेरी इच्छा पूरी करेंगे । एक रोज रात्रि को स्वप्न में राजा ने मुंह से, ‘‘हे राम ! हे राम ! हे राम !’’ स्मरण किया ।
रानी यह सुनकर कृत - कृत्य हो गई और प्रातःकाल होते ही, गाजे बाजे बजवाने लगी । अनेकों प्रकार का धर्म - पुण्य करने लगी । सवेरे राजा ने पूछा ~ आज यह इस प्रकार का उत्सव और धर्म - पुण्य किस कारण से किया जा रहा है ? नौकरों ने कहा ~ महारानी साहब का हुकम है । राजा महलों में आकर रानी से बोले ~ आज प्रिये, यह उत्सव किस बात का हो रहा है ? रानी बोली ~ हे राजन् ! आज आप के मुँह से राम नाम निकल गया, उसी के उपलक्ष में यह आनन्द हो रहा है ।
राजा पलंग पर लेट गये और विरह से पुकारने लगे, हे राम ! आप मेरे मुंह से कैसे निकल गये ? मैंने तो आपको बहुत छुपा कर हृदय में रख रखा था । अब मैं आपके बिना कैसे जी सकता हूँ ? तब रानी की आँखें खुलीं कि मेरे पति तो अन्तर्निष्ठ भक्त थे, मैं इनको नहीं जान सकी । राजा ने ‘हे राम ! हे राम !’ पुकारते - पुकारते, शरीर का त्याग कर दिया । रानी भी पतिव्रता होने के नाते, पति - वियोग का दुःख न सह सकी, वह भी सती हो गई । ‘‘सुन्दरी कबहूँ कंत का, मुख सौं नाम न लेइ’’
चन्द सूर नहीं चलता दीसै, बधती न दीसै बेल ।
साधु न दीसै सुमरतां, ये कुदरत का खेल ॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें