रविवार, 27 अप्रैल 2014

१. गुरुदेव को अंग ~ १३

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*काहूँ सौं न रोष तोष काहू सौं न राग दोष,*
*काहूँ सौ न बैरभाव काहू की न घात है ।* 
*काहूँ सौ न बकवाद काहू सौं नहीं विषाद,* 
*काहूँ सौ न संग न तौ कोऊ पक्षपात है ॥* 
*काहूँ सौ न दुष्ट बैंन काहू सौं न लैन दैन,* 
*ब्रह्म कौ बिचार कछु और न सुहात है ।* 
*सुन्दर कहत सोई ईशनि कौ महा ईश,* 
*सोई गुरुदेव जाकै दूसरी न बात है ॥१३॥* 
अनन्यचिन्तक ही गुरु : जिस का किसी के प्रति न क्रोध है, न कोई ममत्व; न कोई राग है न द्वेष; न किसी से वैरभाव है, न किसी से हिंसा का षड्यन्त्र । वह किसी से निरर्थक वाद नहीं करता, न किसी के कहे सुने का दुःख ही मानता है; न किसी में उसकी आसक्ति है न किसी के साथ पक्षपात है । वह न किसी को दुर्वचन(कटुवाणी) बोलता है न किसी से लेन देन(आर्थिक व्यवहार) करता है; उसको ब्रह्मचिन्तन के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य प्रिय नहीं लगता । 
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - ऐसे महापुरुष ईश्वरों में भी महेश्वर हैं । हम तो उनको ही अपना गुरु मानते हैं, जिन को(राम - भजन के अतिरिक्त) अन्य कोई भी व्यवहार रुचिकर नहीं लगता ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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