बुधवार, 25 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ ९

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*बीति गये पिछले सब ही दिन,* 
*आवत हैं आगिलौ दिन नेरै ।* 
*काल महा बलवंत बड़ौ रिपु,* 
*सांधि रह्यौ सिर ऊपरि तेरै ॥* 
*एक घरी मंही मारि गिरावत,* 
*लागत ताहिं कछू नहीं बेरै ।* 
*सुन्दर संत पुकारि कहैं सब,* 
*हूं पुनि तोहि कहूं अब टेरै ॥९॥* 
तेरे बचपन और तरुणाई के दिन बीत गये, बुढ़ापे के दिन आने वाले हैं । 
महान् बलशाली तेरे शत्रु काल(मृत्यु) तुझे अपना लक्ष्य बना कर तेरे सिर पर खड़ा है । 
वह एक घड़ी(अल्प काल) में भी तुझे मार कर गिरा सकता है, उसको इस कार्य की पूर्णता में कोई अधिक समय नहीं लगता । 
*श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - पुराने सन्तों ने तुझको अनेक बार इस विषय में सावधान किया है । अब मैं भी तुझे यही चेतावनी दे रहा हूँ ॥९॥ 
(क्रमशः)

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