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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ११/१२)*
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*राजा कन्याओं का संवाद*
पूछत भूप जु ब्याह सुकन्यहिं,
जो तुमरो कुल ताहिं विवाहू ।
उत्तर देवत साधवि कन्याजु,
क्या तुमरे कुल विधवा ब्याहू ?
जो विधि कंत विरंचि सुता वर,
ताँ वर सों हम तो रूचि लाहू ।
वर्ष भर वसु मोर विवाह जु,
या गुरु साख हरि वर पाहू ॥११॥
तब राजा ने उन कन्याओं के चित्त की परीक्षा के लिये, उनके पास जाकर पूछा - यदि तुम्हारी विवाह की इच्छा हो तो तुम्हारे कुल और अवस्था के अनुरूप उचित वर की तलाश करके विवाह की व्यवस्था कर दूँ । तब साध्वी कन्याओं ने उत्तर दिया - हे राजन् ! क्या तुम्हारे कुल में विधवा - विवाह भी होता है ? विधाता ने हम कन्याओं के लिये जिस वर का विधान रचा था, उस परमात्मा का वरण हम तो मन से कर चुकी हैं । हमारा विवाह हुये तो आठ वर्ष बीत चुके हैं, गुरुदेव श्री दादूजी इसके साक्षी है । अब तुम श्रीहरि का भजन स्मरण छुड़ावोगे तो हमारी स्थिति विधवा जैसी हो जायेगी । ब्राह्मण या क्षत्रियकुल में विधवा - विवाह कभी नहीं होता ॥११॥
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*कन्याओं ने राजा को फटकारना*
दे वरदान हिं शीश धर्यो कर,
तत्व दिखायहिं ज्ञान स्वरूपा ।
तूं नहिं जनत संतन को तप,
अन्ध भयो मद डूबत कूपा ।
शाह अकैंबर तोहि पिता संग,
सीकरि आसन देखि अनूपा ।
तूं मतिहीन भयो अब मूरख,
ये दिव्य रूप दयालु हैं भूपा ॥१२॥
गुरुदेव ने परमेश्वर जैसे वर को हमारा कन्यादान करके शीश पर हाथ रखा, तत्व दर्शन करा कर ज्ञान का प्रकाश किया । तुम इन समर्थ संत का तप: प्रभाव नहीं जानते । अपने राजमद में डूबे हुये अंध - कूप में पड़े हो । तुम्हारे पिता राजा भगवद्दास जी संतों का महत्व समझते थे, उन्होंने अकबर बादशाह के साथ सीकरी शहर में श्री दादूजी के तेजोमय दिव्य आसन के दर्शन किये थे । एक तुम हो - जो उनके पुत्र होकर भी मतिहीन मूर्ख हो । इन दयालु संत की महिमा नहीं समझते ॥१२॥
(क्रमशः)
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