सोमवार, 23 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ ८

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*भूलि गयौ हरि नांम कौ तूं सठ,* 
*देखि धौं कौन संयोग बन्यौ है ।*
*काल अचानक आइ गहै कंठ,* 
*पेखि धौं झूठौ सौ तानौ तन्यौ है ॥* 
*छार करै सब चांम कौं लूटे,* 
*आदि कौ ऐसें ही जीव हन्यौ है ।*
*कोउ न होत सहाइ कौ कूटै,* 
*अनादि कौ सुन्दर यासौं सन्यौ है ॥८॥*
रे शठ ! तूँ हरिस्मरण करना तो भूल ही गया - यह कैसा कुसंयोग बन गया है ।
अब तुझे यह भी ध्यान नहीं आ रहा है कि कब अचानक आ कर मृत्यु तेरा गला पकड़ लेगी । 
यह(मृत्यु) क्षण भर में तेरे इस शरीर को नष्ट कर राख का ढेर बना देगी । मृत्यु का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है । 
इस मृत्यु से तेरी रक्षा करने में तेरा परमस्नेही कुटुम्ब भी तेरी कोई सहायता न कर सकेगा । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हम अनादि काल से सन्तों से ऐसा ही सुनते आ रहे हैं ॥८॥ 
(क्रमशः)

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