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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१९३. उपदेश । पंजाबी - त्रिताल
पंडित, राम मिलै सो कीजे ।
पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, सोई तत्त्व कह दीजे ॥टेक॥
आतम रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा ।
परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटै सब संसारा ॥१॥
ए गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जलै शरीरा ।
तन मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल नहाओ नीरा ॥२॥
सोई मार्ग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा ।
भूलि न परै उलट नहीं आवै, सो कुछ करहु विचारा ॥३॥
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमिर मिटे सब सूझे ।
दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलन की बूझे ॥४॥
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इसके प्रसंग की कथा -
जगजीवनजी बैल लद, आये चर्चा काज ।
गुरु दादू यह पद कहा, सब तज शिष शिरताज ॥५॥
पंडित जगजीवन दक्षिण देश के थे और काशी में पढ़कर दिग्विजय करते हुये आमेर में आकर, आमेर के पंडितों को शास्त्रार्थ के लिये कहा । आमेर के पंडितों ने उनके दिग्विजय सम्बन्धी प्रमाण - पत्र देखकर सोचा - इन्हें जीतना तो कठिन हैं । आमेर की लज्जा रखने के लिये इन्हें संत दादूजी के पास ले चलें ।
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फिर सब ने कहा - हमारे एक संत है, आप उनके पास चलिये हमारी हार - जीत का निर्णय भी वहां ही हो जायगा । फिर पंडितों के साथ जगजीवन संत दादूजी के पास गये और दादूजी से अनेक प्रश्न किये । दादूजी ने उनके प्रश्नों के उत्तर न देकर उक्त १९३ का भजन बोला । उसे सुनकर जगजीवन अति प्रभावित हो गये ।
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पुस्तकें विप्रों को बांट दी और दादूजी के शिष्य होकर निरंजनब्रह्म के भजन में लगे गये । फिर दादूजी की आज्ञा से दौसा की टहलडी पहाड़ी पर रह कर भजन करने लगे थे । उस पहाड़ी पर अकबर बादशाह और आमेर नरेश मानसिंह ने विशाल आश्रम बनवा दिया था । जिससे सारी पहाड़ी घिरी हुई है और वह स्थल बहुत सुन्दर तपोस्थली है ।
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