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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” १७/१८)*
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*श्री दादूजी ने परमात्मा की समर्थता बताई*
भूप कहे - तुम नाहिं कुमावत,
छाजन भोजन का विधि होई ।
भेंट न लेवत, ना धन संचित,
नौतम अम्बर धारत सोई ।
आप कही जग आस तजी जन,
और सबे मन को मद खोई ।
तो हरि आप संभाल करे नित,
दास कभी दुख होय न कोई ॥१७॥
राजा ने निवेदन किया - आप साधु संत न तो कमाते हैं, न भेंट लेते हैं और न कोई धन का संचय ही रखते हैं, फिर यह छाजन - भोजन की व्यवस्था किस प्रकार होती है ? सभी संत नौतम अम्बर धारण किये हुये हैं, इन सबकी पूर्ति कहां से होती है ? तब स्वामीजी ने शंका का निवारण किया - साधु संतों ने जग की आशा त्यागकर अपने मद मान को भी जीत लिया है, केवल श्री हरि के अनन्य शरण होकर रहते हैं, अत: वे श्रीहरि ही सबकी सँभाल करते है । इन संतों को कभी कोई दु:ख नहीं होता ॥१७॥
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*मनोहर छन्द*
*राजा को टीला जी ज्ञान सीखाना*
टीला शिष्य स्वामी साथ, मानसिंह पूछी बात,
टीला सब कही तात, भूप सों बखानिये ।
टीला समाधान करी, भूप सनमान धरी,
मानसिंह चुप होय, गुरु उर मानिये ।
टीला जी सुं सत्य सुनि, मान मान्यो गुरु गुनी,
बार - बार शीश नाय, गुरु सनमानिये ।
दादूपंथी संत जन, एक हि अद्वैत मन,
नरपति गुरुपद - रज शीश आनिये ॥१८॥
इस संक्षिप्त उत्तर से राजा को सन्तुष्टि नहीं हुई । उसने स्वामीजी के हजूरी शिष्य टीलाजी से साधुओं की व्यवस्थावृत्ति के बारे में पूछा । टीला जी ने संत प्रभाव, सेवकों का श्रद्धाभाव, सेवावृत्ति, त्यागनीति का विस्तार से व्याख्यान किया । राजा की शंका का समाधान किया । सन्तुष्ट होकर राजा ने भी स्वामीजी के प्रति गुरुभावना धारण कर ली, शीश निवाकर चरणरज शिर पर लगाई और महल में लौट गया । दादूपंथी संतों को एक अद्वैत के उपासक, भेदभाव जातिवर्ण पक्षपात से रहित निर्मल साधु मानने लगा ॥१८॥
(क्रमशः)
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