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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” २१/२२)*
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*इन्दव छन्द*
*राजा ने प्रार्थना की*
आप चले कर धारि कमण्डलु,
संत सभा मडली सब सारी ।
भूपति मान डरे गुरु चालत,
संत दुखाय लियो दुख भारी ।
मैं न कह्यो गुरु आप चले उठि,
विप्रन्ह बात बुरी सुविचारी ।
औगुण मोर क्षमा करि हो गुरु,
मैं अपराध कियो मतिहारी ॥२१॥
श्री दादूजी हाथ में कमण्डलु उठाकर आमेर से प्रस्थान करने लगे, सभी साधु मंडली भी संग में चल पड़ी । आमेर नरेश मानसिंह को जब मालूम हुआ तो वह संभावित हरिकोप से डरने लगा । दौड़कर स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा और बोला - हे गुरुदेव ! मैंने तो आप से कुछ भी नहीं कहा, फिर आप यह नगरी छोड़कर क्यों चल दिये ? मूर्ख ब्राह्मणों की बात का बुरा मानकर यदि पधार रहे हो, तो मैं उन सबकी ओर से क्षमा मांगता हूँ । मैं अपराधी हूं, मैने उन विद्वेषी निन्दकों को रोका नहीं, राजदण्ड नहीं दिया - इस अवगुण को क्षमा कर दो । संतों को दु:ख देने वाले सभी दु:ख पायेंगे, वे मतिहीन है ॥२१॥
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संत कहे - नहिं मान ! डरो तुम,
संग सदा हरि तोर सहाई ।
एकहिं भाव भले जु बुरे हम,
नाहिं विचार सुसाधु कराई ।
भूप कहे - तुम संत बड़े गुनि,
निन्दक बात कही नहिं जाई ।
संत उठे तब आप दुखी हरि,
कोपत व्योम आवाज सुनाई ॥२२॥
स्वामीजी ने कहा - हे मानसिंह ! डरो मत । श्री हरि सदा तुम्हारे सहायक है । हम संतों के लिये तो भले, बुरे, प्रेमी, विद्वेषी सब समान हैं, हम साधु इसका विचार भी नहीं करते । राजा ने कहा - आप महान्, उदार और गुणी संत हैं, इन तुच्छ निन्दकों की बात का क्या विचार करेंगे । इनका तो स्वभाव ही निन्दा करना है, इनकी तुच्छता तो वाणी से कहने योग्य भी नहीं है । संतों की भक्ति - साधना में विघ्न होता देखकर, संत - पीडा से श्रीहरि भी दु:खी होकर कुपित हो गये । संतों को आसन छोड़कर उठते देखा, तो आकाशवाणी से गर्जना पूर्ण तर्जना प्रकट हुई ॥२२॥
(क्रमशः)
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