शनिवार, 28 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १२

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*तूं अति गाफिल होइ रह्यो सठ,*
*कुंजर ज्यौं कछु शंक न आंनै ।* 
*माइ नहीं तन मैं अपने बल,*
*मत्त भयौ बिषया सुख ठांनै ॥* 
*खोसत खोसत बै दिन बीतत,*
*नीति अनीति कछू नहिं जांनै ।* 
*सुन्दर के हरि काल महारिपु,*
*दंत उपारि कुंभस्थल भांनै ॥१२॥* 
तूँ मन्दोमत्त हाथी की तरह उन्मत पड़ा है, तुझे अपने पर आती हुई विपत्ति की कोई चिन्ता ही नहीं है । 
तुझे अपने बल पर इतना गर्व है कि तूँ अपने सामने किसी को कुछ न समझ कर विषयसुखों के भोग के भोग में ही मस्त हो रहा है । 
तूँने संसार में दुर्बलों को छीना झपटी करते करते इतने दिन बिता लिये ! तूँ अपने इस कुकृत्य में किसी न्याय अन्याय का भी कोई विचार नहीं करता ।
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - सिंह के सामान तेरा महान् शत्रु बना हुआ यह काल(मृत्यु) तेरे दाँत उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल(मस्तक) चीर डालेगा ! ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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