गुरुवार, 26 जून 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*सोई रह्यौ कहां गाफिल व्है करि,* 
*तो सिर ऊपर काल दहारै ।* 
*धामस धूमस लागि रह्यौ सठ,* 
*आइ अचानक तोहि पछारै ॥*
*ज्यौं बन मैं मृग कूदत फांदत,* 
*चित्रक लै नख सौं उर फारै ।* 
*सुन्दर काल डरै जिहिं के डर,* 
*ता प्रभुकौं कहि क्यों न संभारै ॥१०॥*
अरे मूर्ख ! तूँ असावधान क्यों पड़ा है । तेरे सिर पर, कालरूप सिंह दहाड़ता हुआ, आ चढ़ा है । 
और तूँ अभी अपने शरीर की निरर्थक साज सज्जा में धूम धाम से लगा हुआ है । उधर वह मृत्युराज, पता नहीं कब आकर तुझको पछाड़(गिरा) दे ।
जैसे वन में कोई हरिण अपनी मौज मस्ती से कूद फाँद रहा हो, और इसी बीच कोई चीता(व्याघ्र जाति का हिंसक पशु) आकर उसके शरीर को अपने तीक्ष्ण नखों से विदीर्ण कर देता है(उसी तरह मृत्यु तुम पर भी आक्रमण कर सकती है) ।
श्रीसुंदरदासजी कहते हैं - रे मानव ! वह मृत्यु भी जिस से भय मानता है, तूँ उस प्रभु का निरन्तर स्मरण क्यों नहीं करता१॥१०॥
(१ - भगवान् श्रीदादूदयाल भी कहते हैं - 
दादू सब जग कंपै काल तैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।
सुर नर मुनिजन लोक सब, स्वर्ग रसातल शेष ॥८६॥
चंद, सूर, धर, पवन, जल, ब्रह्मांड खंड प्रवेश ।
सो काल डरै करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥८७॥
श्री दादूवाणी काल का अंग)
(क्रमशः)

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