रविवार, 29 जून 2014

= षो. त./१९-२० =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“षोडशी तरंग” १९/२०)*
.
*पंडितों ने राजा को बहकाया* 
अम्बापति जाय कही, दादू सिद्ध साधु सही,
ऐसी सुनि बात द्विज, मन में उदास जू । 
द्विज मिलि द्वेष करी, दाह को विचार धरी, 
संत को भगायें तब कटे सब पाश जू । 
लोग उकसाय नित, भूप ढिंग भेजे द्विज,
कहे संत रीति - नीति करत विनाश जू । 
बिगरे न कछु तोहि, जग में कुजस होइ, 
वेद धर्म भ्रष्ट किये नरक निवास जू ॥१९॥ 
राजा ने साधु - निन्दक ब्राह्मणों को धिक्कारा और कहा कि - श्री दादूजी सच्चे साधु हैं, तुम वृथा ही दुराग्रह ग्रसित होकर विद्वेष और निन्दा करते हो, यह सर्वथा अनुचित है । यह सुनकर विद्वेषी ब्राह्मण उदास हो गये । उन्होंने मिलकर ईर्ष्या डाह जनित षड्यन्त्र रचने का विचार किया - जिससे ये साधु किसी प्रकार भगाये जा सके, तभी सारी समस्या का जालपाश हो सकेगा । विद्वेषी ब्राह्मण, साधुओं के विरूद्ध जन - समुदाय को उकसाने लगे, उन्हें भरमाकर नित्य राजा के सामने भेजते, संत विरोधी नारे लगवाते, दुष्प्रचार करके, संतों को वैदिक रीति नीति, सनातनधर्म का विनाशक बताते । वे ब्राह्मण बार - बार राजा से कहते - ‘‘आपका तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं, धर्म और जन समाज भ्रष्ट हो जाने से केवल कुयश ही फैलेगा, किन्तु वेद - मर्यादा और धर्म - व्यवस्था भ्रष्ट होने पर सभी नरक में जावेंगे ॥१९॥ 
*श्री दादूजी का विचार रमने का* 
भूप मन गुरु भाव, पूजे दादूदेव पाँव, 
विप्र - विरोध सोच कहे समुझाइ जू । 
साधुन्ह दुखावे जाकी, कोई न सहाय वाकी, 
महा अपराध होय, हरि रूठ जाइ जू । 
माने नहिं द्वेष भरे, निन्दक उठाय शिर, 
करें उतपात नित संत को भगाइ जू । 
संत सोचें मेरे काज, विघन हो राजकाज, 
छाँड़ि चलो अम्बपुरी, रमो जग जाइजू ॥२०॥ 
राजा के मन में श्री दादूजी के प्रति गुरुभाव सुदृढ़ था । विद्रोही ब्राह्मणों के भ्रमित जन समुदाय को समझाया - ‘‘सच्चे साधुओं को दु:ख देने से उन्हें सताने से महा अपराध हो जायेगा, श्री हरि रुष्ट हो जायेंगे । साधु - उत्पीड़न से, संत - विद्वेष से हरि का कोप भी हो सकता है ।’’ किन्तु भ्रमित विद्वेषी और निन्दक नहीं माने । संत को भगाने हेतु नित्य उत्पात करने लगे । तब संतों ने सोचा कि - हमारे कारण राज - काज में विघ्न हो रहा है, अत: अम्बापुरी छोड़कर कहीं अन्यत्र चलना चाहिये ॥२०॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें