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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” १३/१४)*
*राजा को कन्याओं ने ज्ञान दिया*
गर्ग - सुता इक गारगि नाम हु,
नांहि विवाहत नित्य कुँवारी ।
शांडिल की जु सुता कहि शांडलि,
नांहि विवाहत कामहु जारी ।
ताहिं कुँवारि कलंक लग्यो किन,
भूपति ! बात विख्यात जु सारी ।
पाय पती - परमेश्वर सों रति,
शील सुस्नान हिं पाप निवारी ॥१३॥
हे राजन् ! पौराणिक इतिहास का स्मरण करो - गर्ग ॠषि की पुत्री गार्गी, और शांडिल्य की सुता शांडिली ने विवाह नहीं किया था । काम वासना को मारकर ज्ञान - साधना की थी । उनके अविवाहित रहने पर तो कलंक नहीं लगा था । वह वृत्तान्त जग विख्यात है । फिर हमारी भक्ति - साधना से कौन सा अनर्थ हो रहा है ? हमने परमेश्वर को ही अपना पति मान लिया है, उनकी प्रीति - भक्ति में सांसारिक पापों को त्याग दिया है । शील - संयम का स्नान करती हुई हम सदा शुद्धचित्त रहती है ॥१३॥
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*राजा का माफी मांगना*
भूप कहे - गुरु - बहिन तुम्हीं मम,
माफ गुन्हां करु औगुन मोरे ।
बोलि सुता - गुरु माफ करें सब,
यों सुनि भूपति स्वामि वे दौरे ।
मोर गुन्हां सब माफ करो गुरु,
आप कही - किम औगुण तोरे ।
भूप! डरो न, करो जन - मंगल,
निन्दक संग भई सति भारे ॥१४॥
कन्याओं का दृढ़ निश्चय और अन्त:करण शुद्धि जानकर राजा ने कहा - तुम तो मेरी गुरुबहिन हो, अपने कोप को शान्त करके मेरा गुनाह माफ कर दो । विवाह का प्रस्ताव रखना, मेरा अवगुण था, उसे क्षमा कर दो । तब कन्यायें बोली - माफी तो गुरुदेव ही देंगे । यों सुन कर राजा दौड़कर गुरुचरणों में गिर पड़ा, अपनी अपराध - भावना के लिये क्षमा मांगने लगा । तब स्वामीजी ने कहा - राजन् ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है, अत: डरो मत । साधु - निन्दकों द्वारा भरमाने से तुम्हारी मति में विभ्रम हो गया था । जन कल्याण करते रहो । राजा का यही धर्म है ॥१४॥
(क्रमशः)
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