रविवार, 22 जून 2014

= षो. त./७-८ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ७/८)* 
*दो बाई का प्रसंग* 
यों द्विज - प्रेरित भूप जु आवत, 
स्वामिजु सन्मुख शीश नवाई । 
और प्रसंगहिं बूझन की मन, 
बूझत है नहिं भूप डराई । 
आप लखी गति अन्तर की सब, 
भूपति को गुरु यों समझाई । 
भूप! मनोरथ क्यूं बिरथा करि, 
कूर्महिं बंश जु दाग लगाई ॥७॥ 
इस तरह भ्रमित करने पर राजा मानसिंह पुन: स्वामीजी के पास आया । शीश निवाकर बैठ गया । कुछ पूछना चाहते हुये भी पूछ नहीं पाया । तब अन्तर्यामी स्वामीजी ने उसकी मनोदशा पहिचान कर कहा - हे राजन् ! वृथा संकल्प - विकल्प और शंकायें करके अपने उत्तम कूर्म वंश पर क्यों कलंक लगा रहे हो? ॥७॥ 
*श्री दादूजी से राजा डर गया* 
यों सुनि भूप डर्यो मन भीतर, 
अन्तर की गति जानत सारी । 
आप कही जन कामवशी सब, 
नेकि निहार सबै नर नारी । 
कोइक त्याग विराग धरै मन, 
शील रू संयम को तप धारी । 
भोग विलास विकार तजे तन, 
राम भजे चित - दोष निवारी ॥८॥ 
स्वामीजी की अन्तर्यामी सिद्धि देखकर राजा डरने लगा । स्वामीजी ने उसे समझाया - सम्पूर्ण संसारी काम वासना के वशीभूत है । कोई नर - नारी इसके वेग के प्रभाव से बचा हुआ नहीं है । कोई बिरला ही त्यागी तपस्वी होता है, जो शील - संयम से रहते हुये वैराग्य साधना करता है । राम - भजन से ही भोग - विलास के विकारों को त्यागा जा सकता है, तन - मन के दोषों को जीता जा सकता है ॥८॥ 
(क्रमशः)

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