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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ७/८)*
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*दो बाई का प्रसंग*
यों द्विज - प्रेरित भूप जु आवत,
स्वामिजु सन्मुख शीश नवाई ।
और प्रसंगहिं बूझन की मन,
बूझत है नहिं भूप डराई ।
आप लखी गति अन्तर की सब,
भूपति को गुरु यों समझाई ।
भूप! मनोरथ क्यूं बिरथा करि,
कूर्महिं बंश जु दाग लगाई ॥७॥
इस तरह भ्रमित करने पर राजा मानसिंह पुन: स्वामीजी के पास आया । शीश निवाकर बैठ गया । कुछ पूछना चाहते हुये भी पूछ नहीं पाया । तब अन्तर्यामी स्वामीजी ने उसकी मनोदशा पहिचान कर कहा - हे राजन् ! वृथा संकल्प - विकल्प और शंकायें करके अपने उत्तम कूर्म वंश पर क्यों कलंक लगा रहे हो? ॥७॥
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*श्री दादूजी से राजा डर गया*
यों सुनि भूप डर्यो मन भीतर,
अन्तर की गति जानत सारी ।
आप कही जन कामवशी सब,
नेकि निहार सबै नर नारी ।
कोइक त्याग विराग धरै मन,
शील रू संयम को तप धारी ।
भोग विलास विकार तजे तन,
राम भजे चित - दोष निवारी ॥८॥
स्वामीजी की अन्तर्यामी सिद्धि देखकर राजा डरने लगा । स्वामीजी ने उसे समझाया - सम्पूर्ण संसारी काम वासना के वशीभूत है । कोई नर - नारी इसके वेग के प्रभाव से बचा हुआ नहीं है । कोई बिरला ही त्यागी तपस्वी होता है, जो शील - संयम से रहते हुये वैराग्य साधना करता है । राम - भजन से ही भोग - विलास के विकारों को त्यागा जा सकता है, तन - मन के दोषों को जीता जा सकता है ॥८॥
(क्रमशः)
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