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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*१०४. संत सहाय रक्षा । राज मृगांक ताल*
पीव तैं अपने काज सँवारे ।
*कोई दुष्ट दीन कों मारन, सोई गहि तैं मारे ॥टेक॥*
मेरु समान ताप तन व्यापै, सहजैं ही सो टारे ।
*संतन को सुखदाई माधो,*
*बिन पावक फँद जारे ॥१॥*
तुम थैं होइ सबै विधि समर्थ, आगम सबै विचारे ।
संत उबार दुष्ट दुख दीन्हा, अंध कूप में डारे ॥२॥
ऐसा है सिर खसम हमारे, तुम जीते खल हारे ।
दादू सौं ऐसे निर्बहिये, प्रेम प्रीति पिव प्यारे ॥३॥
इस पर दृष्टांत -
गुरु दादू पै कूड़कर, मारण म्हेले नीच ।
तब स्वामी यह पद कह, दुष्ट कूप के बीच ॥१॥
दादूजी निर्गुणब्रह्म भक्ति का प्रचार करते थे । इससे कु़छ वैष्णव महन्तों ने मिलकर गलता में विचार किया कि दादू का प्रचार बढ़ता जा रहा है, वह सगुण - साकार को साधना का बाधक है । अतः दादू को अपने सम्प्रदाय में मिला लिया जाय तो उससे हमारी साधना की वृद्धि होगी ।
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यह विचार करके गैबीदास, जंगीदसा, रामघटादास और छीतरदास इन चार साधुओं को माला - तिलकादि देकर सांभर भेजा था । उनसे दादूजी तो प्रभावित नहीं हुये । उलटे चौथे छीतरदास दादूजी से प्रभावित होकर दादूजी के शिष्य हो गये । उक्त तीन साधुओं ने गलता में आकर कहा - दादू तो अपने सम्प्रदाय में नहीं मिला और हमारे साधु छीतरदास को उसने बहकाकर अपने पास रख लिया है ।
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यह सुनकर सब लोग रुष्ट हुये और दादूजी को मारने के लिये झंझू और बांझू दो मीणों के बुलवाकर कहा - तुम सांभर में जाकर दादू को मार कर आओ, हम तुमको धन तथा मान से सन्तुष्ट करेंगे । दोनों मीणे प्रलोभन में आकर दादूजी को मारने सांभर को चल दिये । जब दादू आश्रम के पास पहुँचे तब भगवान् ने सोचा - ये दुष्ट तो संत को मारने का साहस करेंगे ही । अतः इनको अंधा कर देना ही ठीक रहेगा ।
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उन दोनों को ईश्वर ने अंधे कर दिये । फिर न दीखने के कारण वे कूप में पड़ गये । कूप में पड़ते ही भगवत् प्रेरणा से दादूजी का नाम उच्चारण करते हुये प्रार्थना की - हे दादूजी महाराज ! हमारी रक्षा करो । दादूजी ने उनकी प्रार्थना अपनी योग - शक्ति से सुन ली फिर उनकी रक्षा के लिये प्रभु से उक्त पद से प्रार्थना की । तब दादूजी के शिष्य होकर झोटवाड़े ग्राम में भजन करने लगे थे और झांझू बांझू नाम से ही प्रसिद्ध संत हो गये थे ।
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उक्त १०४ के पद के पाद एक -
*संतन को सुख दाई माधव ।* इतने अंश पर दृष्टांत -
मेले आवत साधु को, लुटण लागे मूढ ।
चढ घोड़े रक्षा करी, भेद दिया नहिं गूढ ॥२॥
हरियाणा प्रान्त से एक संत दादूधाम नारायण के मेले में संतों को भोजन कराने के लिये कु़छ धन लेकर पैदल ही आ रहे थे । कारण, उस समय रेत आदि के साधन नहीं थे । मार्ग में चोरों को ज्ञात हो गया कि इनके पास धन है । इससे वे इनके साथ लग गये । आगे वन के मार्ग में चोरों ने पू़छा - आपके साथ आपका रक्षक कौन है ?
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संत ने कहा - हमारे रक्षक समर्थ स्वामी है । चोर - कहा हैं ? संत - पीछे आ रहे हैं । इतना कहते ही संत वचन सत्य करने के लिये समर्थस्वामी घोड़े पर चढ़े हुये सशस्त्र आते दिखाई दिये । उनको देखकर चोर डर गये । फिर ग्राम आने पर समर्थस्वामी अपना भेद दिये बिना ही अन्तर्धान हो गये ।
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तब संत ने समझा कि वे तो परमेश्वर ही थे उन्होंने घुड़सवार होकर मेरी रक्षा की है । उन्हें मेरे लाखों प्रणाम है । फिर दादूधाम नारायण में आकर उक्त संतजी ने सब धन संतों को भोजन कराने में खर्च कर दिया । सोई उक्त १०४ पद के पाद एक मे कहा है - संतों को उक्त प्रकार माधव सुखदाता ही सिद्ध होते हैं । उक्त संत के समान ही संतों की रक्षा करते हैं ।
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उक्त १०४ पद के पाद एक के - *बिना पावक फँद जारे ।* पर दृष्टांत -
मिरगी वेरी चहुँ दशा, व्याध श्वान फँद आग ।
सर्प डसा सुनहा मरा, फंद जला गई भाग ॥३॥
एक हृष्ट - पुष्ट मृगी थी । उसे मारने के लिये एक व्याध ने कई बार प्रयत्न किया था किन्तु वह हरि कृपा से बच ही जाती थी । एक दिन उस व्याध ने, उस मृगी को एक वन की झाड़ी में सोते हुये देखा और निश्चय किया कि आज इसे अवश्य मारना है ।
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फिर उसने एक और आग जलादी, दूसरी ओर अपना शिकारी कुत्ता खड़ा कर दिया । तीसरी ओर जाल तान दिया और चौथी ओर धनुष पर बाण चढ़ा कर स्वयं खड़ा हो गया । आग के ताप से मृगी की नींद टूटी तब उसने देखा कि चारों मार्ग बन्द है । उस भयंकर संकट के समय वह हरि की शरण में गयी । तब हरि ने एक साथ ही चारों मार्ग खोल दिये ।
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वायु ने बदल कर जाल - जला दिया, वर्षा ने आग बुझा दी, व्याध के पैर को एक काले सर्प ने काट लिया, उससे उसका हाथ हिल कर बाण कुत्ते के जा लगा । उक्त प्रकार एक साथ ही चारों मार्ग प्रभु ने खोल दिये । मृगी भाग गई ।
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सोई १०४ पद के पाद एक में कहा हैं - बिन पावक फंद जारे - अर्थात् पास में पावक नहीं थी फिर भी प्रभु ने वायु के द्वारा पावक भेजकर फंदा जला दिया था । जैसे उक्त मृगी की रक्षा प्रभु ने की वैसे ही भक्तों की रक्षा सदा भगवान् करते ही रहते हैं ।
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