गुरुवार, 10 जुलाई 2014

= स. त. ५-६ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“सप्तदशी तरंग” ५-६)*
.
*पिथा निरवाण ने कहा गुरुदेव आज आप के दर्शन हुये* 
पीथल नाम दिवाण जु जाति हुं, 
संत सुदर्शन की मन ठाना । 
नाम सुन्यो चिरकाल प्रतीक्षहिं, 
नैन निहारत आज प्रमाना । 
आयसु दो गुरु सेव करूँ अब, 
भोजन - छाजन जो मन माना । 
संत स्वरूप धरे हरि या जग, 
ताहिं जिमावत होत कल्याना ॥५॥ 
हे संत महात्मा ! मैं दीवानवंशी पीथल नामक सेवक आपकी शरण में आया हूँ । बहुत दिनों से आपकी शोभा सुन - सुनकर मन में दर्शनों की लालसा थी, जो आज पूरी हुई । हे गुरुदेव ! सेवा हेतु कोई आज्ञा फरमाइये । छाजन, भोजन की व्यवस्था करूं या अन्य कोई सेवा । इस संसार में संत श्री हरि के ही रूप होते हैं, उन्हें भोजन कराने से अवश्य ही कल्याण होता है, अत: मैं भोजन लेकर आता हूँ ॥५॥ 
संत कहें तुम्हरो अन्न दूषित, 
नाहिं लहौं तिन्ह पाप भरीजे । 
तस्कर चोर डकैतन्ह को अन्न, 
ईश्‍वर के नहिं भोग धरीजे । 
मानत नाहिं हठी जन पीथल, 
सोचत संत बहानु करीजे । 
पाक बनाकर ल्यावहुं मैं जब, 
भोजन संतहिं संग करीजे ॥६॥ 
तब संत श्री दादूजी ने कहा - हे पीथल ! तुम्हारा अन्न दूषित है, पाप कर्मों से संचित धन से बनाया हुआ भोजन, ईश्‍वर के भोग योग्य कैसे हो सकता है । चोरी डकैती तो पाप कर्म है । उनसे उपार्जित अन्न साधु ग्रहण नहीं करते । किन्तु हठी वह पीथल नहीं माना, और सोचने लगा कि - संत जी बहाना बनाकर टालना चाहते है । जब भोजन पाक बनाकर लाऊंगा, तब सबके साथ जीम ही लेंगे ॥६॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें