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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“सप्तदशी तरंग” ५-६)*
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*पिथा निरवाण ने कहा गुरुदेव आज आप के दर्शन हुये*
पीथल नाम दिवाण जु जाति हुं,
संत सुदर्शन की मन ठाना ।
नाम सुन्यो चिरकाल प्रतीक्षहिं,
नैन निहारत आज प्रमाना ।
आयसु दो गुरु सेव करूँ अब,
भोजन - छाजन जो मन माना ।
संत स्वरूप धरे हरि या जग,
ताहिं जिमावत होत कल्याना ॥५॥
हे संत महात्मा ! मैं दीवानवंशी पीथल नामक सेवक आपकी शरण में आया हूँ । बहुत दिनों से आपकी शोभा सुन - सुनकर मन में दर्शनों की लालसा थी, जो आज पूरी हुई । हे गुरुदेव ! सेवा हेतु कोई आज्ञा फरमाइये । छाजन, भोजन की व्यवस्था करूं या अन्य कोई सेवा । इस संसार में संत श्री हरि के ही रूप होते हैं, उन्हें भोजन कराने से अवश्य ही कल्याण होता है, अत: मैं भोजन लेकर आता हूँ ॥५॥
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संत कहें तुम्हरो अन्न दूषित,
नाहिं लहौं तिन्ह पाप भरीजे ।
तस्कर चोर डकैतन्ह को अन्न,
ईश्वर के नहिं भोग धरीजे ।
मानत नाहिं हठी जन पीथल,
सोचत संत बहानु करीजे ।
पाक बनाकर ल्यावहुं मैं जब,
भोजन संतहिं संग करीजे ॥६॥
तब संत श्री दादूजी ने कहा - हे पीथल ! तुम्हारा अन्न दूषित है, पाप कर्मों से संचित धन से बनाया हुआ भोजन, ईश्वर के भोग योग्य कैसे हो सकता है । चोरी डकैती तो पाप कर्म है । उनसे उपार्जित अन्न साधु ग्रहण नहीं करते । किन्तु हठी वह पीथल नहीं माना, और सोचने लगा कि - संत जी बहाना बनाकर टालना चाहते है । जब भोजन पाक बनाकर लाऊंगा, तब सबके साथ जीम ही लेंगे ॥६॥
(क्रमशः)

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