गुरुवार, 10 जुलाई 2014

*मोरड़ा प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मोरड़ा प्रसंग*
*दादू सूखा रुखड़ा, काहे न हरिया होय ।*
*आपे सींचे अमीरस, सुफल फलिया सोय ॥७ *
(बेली अंग ३६)
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह स्थूल शरीर रूपी वृक्ष, ज्ञान - भक्ति रूप जल प्राप्त किये बिना सूख रहे हैं । अब किस प्रकार हरे होवें ? यदि उत्तम भाग्य से सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु मिलें और वे अपने सत्य उपदेश अमृत रूप जल से सींचें, तो फिर उन शरीर रूपी वृक्षों के ज्ञान अमृत रूप फल लगें ॥७॥
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दादूजी करड़ाला से प्रथम बार मोरड़ा पधारे तब मंद मंद वर्षा हो रही थी । साथ में कु़छ भक्त भी थे । वे सब छाया में बैठकर अपने वस्त्र भीगने से बचाना चाहते थे । किन्तु ग्राम वालों ने कहा आगे जाइये, आगे जाइये कहते हुये ग्राम से बाहर निकाल दिया । वहां के तालाब की पाल पर एक विशाल वट का वृक्ष सूखा हुआ खड़ा था । उसकी विशाल शाखाओं की ओट में वे जाकर खड़े हो गये ।
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दादूजी ने ऊपर देखा तो ज्ञात वृक्ष सूख गया हैं । तब दादूजी ने यह सोचकर कि आश्रय देने वाला वृक्ष भी सूखा ही मिला । उस पर दया करके उक्त बेली के अंग ३६ की सातवीं साखी उच्चारण की । इसके उच्चारण करते ही वह वृक्ष उसी समय हरा हो गया था और अद्यापि मोरड़े के तालाब की पाल पर दयालजी का बड़ के नाम से प्रसिद्ध है ।

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