॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३. काल चितावनी को अंग*
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*झूठौ धन झूठौ धाम झूठौ कुल झूठौ काम,*
*झूठी देह झूठो नांम धरिकैं बुलायौ है ।*
*झूठौ तात झूठी मात झूठे सुत दारा भ्रात,*
*झूठौ हित मांनि मांनि झूठौ मन लायौ है ॥*
*झूठौ लैंन झूठौं दैंन झूठौ मुख बोलै बैंन,*
*झूठै झूठै करि फैंन झूठ ही कौं धायौ है ।*
*झूठ ही मैं रातौ भयौ झूठ ही मैं पचि गयौ,*
*सुन्दर कहत साच कबहूं न आयौ है ॥२४॥*
*अतः मिथ्या प्रपंच का त्याग आवश्यक* : रे भोले मानव ! तेरा यह धन घर - द्वार, उच्च कुल, बड़े बड़े कर्म, शरीर, तेरा यह बुलाने का नाम - सब कुछ झूठा है, मिथ्या है ।
तेरे ये माता पिता, भाई बन्धु ! पुत्र पत्नी, हितैषी भी सब मिथ्या हैं, काल्पनिक हैं । यह तेरा समस्त जगद्व्यवहार, तेरी यह लोगों से बातचीत, उनके साथ तेरे ये हाव - भाव सब कुछ मिथ्या है ।
तेरा यह दौड़ना धूपना भी निरर्थक ही दिखायी देता है । इस तरह तूँ समस्त मिथ्या व्यवहार में लगा हुआ है ।
*श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - तूँ इस मिथ्या प्रपंच में ही व्यस्त है । वस्तुतः यहाँ के सत्य की ओर तूँ ध्यान ही नहीं देता ! ॥२४॥
(क्रमशः)

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