॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३. काल चितावनी को अंग*
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*बरषा भये तैं जैसे बोलत भंभीरी सुर,*
*खंड न परत कहुं नेकहु न जांनिये ॥*
*जैसैं पूंगी बाजत अखंड सुर होत पुनि,*
*ताहू मैं न अंतर अनेक राग गांनिये ॥*
*जैंसें कोऊ गुडी कौं चढ़ावत गगन मांहि,*
*ताहू की तौ धुनि सुनि वैंसैं ही बखांनिये ॥*
*सुन्दर कहत तैंसे काल कौ प्रचंड बेग,*
*रात दिन चल्यौ जाइ अचिरज मांनिये ॥२१॥*
जैसे वर्षा ऋतु में झींगुर कीट(=भंभीरी) निरन्तर नाद करता रहता है, उसमें किंचित् भी व्यवधान(अन्तर) नहीं होने देता !
या जैसे पूंगी(एक वाद्यविशेष) बाजाने वाला पूंगी से निरन्तर ध्वनि निकालता रहता है, उसमे कोई भेद नहीं आने देता;
या जैसे कोई पतंगबाज अपनी पतंग को आकाश में निरन्तर आगे बढ़ाता रहता है, उस की गति में कोई विघ्न नहीं आने देता ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उसी तरह, इस काल की तीव्र गति भी ऐसी ही है, यह रात दिन आगे से आगे ही बढ़ता रहता है - इस में आश्चर्य नहीं मानना चाहिये ॥२१॥
(क्रमशः)
Satyaram ji
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