सोमवार, 7 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ २१

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*बरषा भये तैं जैसे बोलत भंभीरी सुर,*
*खंड न परत कहुं नेकहु न जांनिये ॥* 
*जैसैं पूंगी बाजत अखंड सुर होत पुनि,* 
*ताहू मैं न अंतर अनेक राग गांनिये ॥* 
*जैंसें कोऊ गुडी कौं चढ़ावत गगन मांहि,* 
*ताहू की तौ धुनि सुनि वैंसैं ही बखांनिये ॥* 
*सुन्दर कहत तैंसे काल कौ प्रचंड बेग,* 
*रात दिन चल्यौ जाइ अचिरज मांनिये ॥२१॥* 
जैसे वर्षा ऋतु में झींगुर कीट(=भंभीरी) निरन्तर नाद करता रहता है, उसमें किंचित् भी व्यवधान(अन्तर) नहीं होने देता ! 
या जैसे पूंगी(एक वाद्यविशेष) बाजाने वाला पूंगी से निरन्तर ध्वनि निकालता रहता है, उसमे कोई भेद नहीं आने देता; 
या जैसे कोई पतंगबाज अपनी पतंग को आकाश में निरन्तर आगे बढ़ाता रहता है, उस की गति में कोई विघ्न नहीं आने देता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उसी तरह, इस काल की तीव्र गति भी ऐसी ही है, यह रात दिन आगे से आगे ही बढ़ता रहता है - इस में आश्चर्य नहीं मानना चाहिये ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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