मंगलवार, 1 जुलाई 2014

३. काल चितावनी को अंग ~ १५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*मेरौ देह मेरौ गेह मेरौ परिवार सब,* 
*मेरौ धन माल मैं तो बहुबिधि भारौं हौं ।* 
*मेरे सब सेवक हुकम कोउ मेटै नांहि,* 
*मेरी जुवति कौं मैं तो अधिक पियारौ हौं ॥* 
*मेंरौ बंस ऊँचो मेरे बाप दाता ऐसै भये,* 
*करत बड़ाई मैं तो जगत उज्यारौ हौं ।* 
*सुन्दर कहत मेरौ मेरौ कर जानैं शठ,* 
*ऐसैं नहीं जांनै मैं तौ काल ही कौ चारो हूँ ॥१५॥* 
रे प्राणी ! तूँ यह समझ रहा है कि मेरा इतना सबल शरीर, मेरा इतना विशाल भवन, मेरा इतना विस्तृत परिवार, मेरी यह अटूट चल - अचल सम्पति इन सबके कारण मैं अत्यधिक सामर्थ्यवान् हूँ । 
मेरे ये नौकर चाकर सभी मेरे आज्ञाकारी हैं, मेरी युवती स्त्री का मैं ही सर्वाधिक प्रिय हूँ । 
तूँ समझता है कि मैं उच्च कुल में जन्मा हूँ, मेरे पिता, पितामह समाज में सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थे । इन सब कारणों से तूँ इस भ्रमजाल में फंस गया है मानों कि यह समस्त संसार तेरे कारण ही प्रकाशयुक्त है, अन्यथा सर्वत्र सब कुछ अन्धकारमय हो जाता । 
*श्री सुंदरदास जी* कहते हैं - परन्तु तेरी समझ में यह बात नहीं आती कि पता नहीं तूँ कब... कल, आज या अभी काल(मृत्यु) का ग्रास बन जायगा ॥१५॥
(क्रमशः)

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