मंगलवार, 1 जुलाई 2014

३३८. राम विसार्यो रे जगन्नाथ

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३३८. ललित ताल
राम विसार्यो रे जगन्नाथ ।
हीरा हार्यो देखत ही रे, कौड़ी कीन्ही हाथ ॥टेक॥
काच हुता कंचन कर जानै, भूल्यो रे भ्रम पास ।
साचे सौं पल परिचय नाहीं, कर काचे की आस ॥१॥
विष ताको अमृत कर जानै, सो संग न आवै साथ ।
सेमल के फूलन पर फूल्यो, चूक्यो अब की घात ॥२॥
हरि भज रे मन सहज पिछानै, ये सुन साची बात ।
दादू रे अब तैं कर लीजै, आयु घटै दिन जात ॥३॥
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"राम विसार्यो रे जगन्नाथ,
हीरा हार्यो देखत हीरे, कौढी कीन्ही हाथ ॥टेक॥"
पद ३३८ की प्रसंग कथा व दृष्टांत -
जगन्नाथजी मोजमाबाद के कायस्थ थे और आमेर में राहदारी(चुंगी विभाग) के अफसर थे । दादूजी के दर्शन व सत्संग के लिये आया करते थे । उनको ही उक्त पद से उपदेश किया था । फिर वे दादूजी के शिष्य होकर आमेर में भजन करते रहे थे ।
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उक्त पद के - हीरा हार्या देखत ही रे, कौडी कीन्ही हाथ
इस अंश पर दृष्टांत प्राचीन -
कमर खोल हीरा धरा, कर कौड़ी की आश ।
कर मांहीं कौड़ी रही, कह जगजीवनदास ॥१॥
एक व्यक्ति मार्ग से जा रहा था । उस की कमर में बँधे हुये वस्त्र के पल्ले में एक हीरा भी बँधा था । उसके सामने मार्ग में बहुत सी कौडियां आईं तब उन कौडियों को बाँधकर साथ ले चलने के लिये उसने कमर का कपड़ा खोलकर उसमें बँधे हुये हीरे को भी खोलकर इसलिये पृथ्वी पर रक्खा कि कौडियां बाँधकर फिर हीरा भी एक पल्ले में बाँध लूंगा ।
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किन्तु वह जब कौडियां बाँधने लगा तब उस हीरे को कोई उठा ले गया । फिर तो उसके हाथ में कौडियां ही रह गई । उक्त प्रकार ही विषय रूप कौडियों के लिये अपनी मनोवृत्ति से परमात्मा रूप हीरा हटा देता है तथा आयुरूप हीरे को विषय भोगों मे लग कर हरि भजन बिना ही खो देता है । फिर पश्चाताप ही करता है ।

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