शनिवार, 19 जुलाई 2014

*.मोरड़ा प्रसंग.*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०प्रवचनपद्धति* 🌷
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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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साखी -
*दादू देह यतन कर राखिये, मन रख्या नहिं जाय ।*
*उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सबखाय ॥८५॥*
दादू हाडों मुख भरा, चाम रह्या लिपटाय ।
मांहीं जिह्वा मांस की, ताही सेती खाय ॥ ८६॥
नौओं द्वारे नरक के, निश दिन बहै बलाय ।
शोचकहां लों किजिये, राम सुमिर गुण गाय ॥७८॥
प्राणी तन मन मिल रहा, इन्द्रिय सकल विकार ।
दादू ब्रह्मा शूद्र घर, कहां रहे आचार ॥८८॥
(मन अंग १०)
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मोरड़ा का वट हरा होने से मोरड़ा ग्राम के लोगों ने आग्रह पूर्वक मोरड़े में दादूजी को रोक लिया था । दयालु दादूजी वहां रुक गये थे । उन्हीं दिनों में एक संत मोरड़ा में आ गये थे । वैशाख मास में तालाब सूख गया था । पानी की कमी थी । उक्त संत ने दादूजी का सत्संग कु़छ दिन किया ।
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फिर वे लोहारगल तीर्थ में गये और वहां के निवासी स्वामी माधवानन्दजी के पास जाकर बोले - मैंने मोरड़ा ग्राम में दादूजी महात्मा का दर्शन सत्संग किया था । उनके अमृत वचनों से मुझे बहुत लाभ हुआ था । संत तो बहुत अच्छे हैं किन्तु उनमें एक कमी अवश्य है ।
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माधवानन्दजी ने पूछा वह क्या है ? संत - आचार की कमी है । वे त्रिकाल स्नान नहीं करते और भिक्षा का ही अन्न पा लेते हैं । स्वच्छता से बनवाकर पाने का प्रयत्न नहीं करते । विशेष रूप से आचार पद्धति का पालन नहीं करते । उक्त संत की सब बातें सुनकर माधवानन्दजी ने दादूजी को एक पत्र लिखकर अपने एक शिष्य के हाथ दादूजी के पास भेजा ।
उस पत्र का मुख्य विषय यह था -
आचार धर्म राखो सदा, तुमरा बढै प्रताप ।
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वह पत्र मोरड़ा में आकर माधवानन्दजी के शिष्य ने दादूजी को दिया । दादूजी ने पत्र पढ़कर उसके उत्तर रूप उक्त ८५ से ८८ तक की साखियां लिखवाकर पत्र उसे दे दिया और कहा - आप जो पत्र लाये थे उसका उत्तर इस पत्र में लिख दिया है । यह अपने गुरुजी को दे देना । वह पत्र माधनानन्दजी ने देखा तो उसमें उक्त साखियां मिली ।
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साखियों को विचार कर माधवानन्दजी ने एक पत्र पुनः अपने शिष्य के हाथ दादूजी के पास भेजा । उसमें लिखा था – भगवन् ! आपकी विचारधारा अति प्रौढ़ है आपके उत्तर से मुझे अति प्रसन्नता हुई है । मैंने एक साधु के कहने से आपको पूर्व पत्र लिखा था किन्तु आपका पत्र पढ़कर मुझे पूर्ण संतोष हुआ है । उच्च कोटि के संतों के लिये बाह्य आचार पद्धति कोई महत्व नहीं रखती । पूर्व पत्र की धृष्टा के लिये क्षमा चाहता हूँ । शेष आपकी कृपा ।

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