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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ३४-३६)*
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*आंधि में १२ दिन सत्संग करडाला के लिये आज्ञा*
वासर द्वादश की सतसंग जु,
रैन समै गुरु ध्यानहिं भासा ।
‘‘जावहु संत ! कल्याणपुरी अब’’,
यों हरि - आयसु होत सुभासा ।
प्रात समै गुरु होत विदा तब,
छाँड़ि चले मडली पुनि वासा ।
दास गरीब लिये मसकीन रू,
टीलहु वेगि चले गुरु दासा ॥३४॥
बारह दिन के सत्संग के बाद स्वामीजी को रात्रि - समय ध्यान में श्रीहरि की प्रेरणा हुई कि - ‘‘अब कल्याणपुरी पधारो’’ । तब प्रात: होते ही श्री दादूजी मंडली को वहीं छोड़कर केवल गरीबदास, मसकीनदास और टीलाजी को साथ लिये चल दिये ॥३४॥
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*रामदास राणीबाई क्राझल्यां का प्रसंग*
क्राँझलि एक महाजन सेवक,
गोत्र डंगायच भाव धरी है ।
रामहिं दास रू राणि सुबाइ जु,
दादु दयालुहि पाद परी है ।
सिंह हिं ना डरि, सेव सदा करि,
पर्वत में गुरु दर्शकरी है ।
भाव रू भक्ति धरे मन में नित,
संतहिं सेवन आय खरी है ॥३५॥
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*आमेर में सात दिन विराजे तब मंडली के संग आये*
वासर पाँच चले पुनि आवत,
अम्बपुरी मिलि हैं जगन्नाथा ।
दे परिदक्षिण धामहिं लावत,
भीर भई पुर आवत साथा ।
वासर सात रहे गुरु आसन,
पूजत तांहि सबै दिन राता ।
आय गये इतने शिष मंडलि,
नैन निहार सबै सुख दाता ॥३६॥
मार्ग में क्रांझली ग्राम के महाजन सेवक डंगायच गोत्रीय रामदास और उनकी पत्नी राणी बाई ने संतों की सेवा की । सिंह का भय नहीं मानती हुई पर्वत कन्दरा में विराजे स्वामीजी के दर्शन हेतु नित्य आने लगी । पाँच दिवस तक वहाँ विराजने के बाद स्वामीजी पुन: आमेर लौट आये, जगन्नाथ जी की कुशलक्षेम पूछी । संत आगमन से सभी सेवक - भक्त अति प्रसन्न हो गये, दर्शनार्थ आने लगे, प्रदक्षिणा देने लगे । सात दिवस के बाद बाकी संत - शिष्यों की मंडली भी आमेर आ गई, और गुरु - दर्शन पाकर आश्वस्त हुई ॥३५-३६॥
(क्रमशः)

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