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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*उत्तरार्ध-भाग प्रारम्भ ~*
*(“सप्तदशी तरंग” १-२)*
*दोहा*
*कल्याणपुरी के लिये आदेश*
कहूं सप्तदश तरँग में, पुरि कल्याण - निवास ।
पीथा कों उपदेश पुनि, रामत विविध विलास ॥१॥
इस तरंग में श्री दादूजी का कल्याणपुरी में पुन: निवास, भक्त पीथा को उपदेश और रामत के विविध प्रसंगों का उल्लेख होगा ॥१॥
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*इन्दव छन्द*
जो कहि प्रश्न दिये सब उत्तर,
नाहिं लखी गति संत अगादू ।
दादु दयालुहिं शुद्ध सँवाद जु,
ज्ञानि गुणीजन लेवत स्वादू ।
गूढ विचार सुज्ञान परम तत,
वेद गुरु मुख जो सुनि साधू ।
माधव मान रू विप्र अचंभित,
मानत संत दिवाकर दादू ॥२॥
आमेर नरेश द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों और आशंकाओं का श्री दादूजी ने समुचित उत्तर दे दिया । संत की अगाध गति को राजा पूर्णत: नहीं समझ पाया । पूर्व तरंग में वर्णित इस संवाद का आनन्द ज्ञानी गुणीजन ही ले सकते हैं, इसका गूढ - ज्ञान - रहस्य साधारण बुद्धिवालों द्वारा अगम्य है । वेदशास्त्रों के गूढ - ज्ञान का सार साधु के मुख से सुनकर राजा अत्यन्त आश्चर्य चकित रह गया । माधवदास कहते हैं कि - इस उपदेश से राजा श्री दादूजी को दिवाकर तुल्य श्रेष्ठ संत मानने लगा ॥२॥
(क्रमशः)
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