#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सन्मुख सतगुरु साधु सौं, साई सौं राता ।
दादू प्याला प्रेम का, महारस माता ॥
सांई सौं साचा रहै, सतगुरु सौं सूरा ।
साधू सौं सनमुख रहै, सो दादू पूरा ॥
सतगुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भंडार ।
दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार ॥
दादू सांई सतगुरु सेविये, भक्ति मुक्ति फल होइ ।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागै कोइ ॥
-------------------------------------------
साभार : Tanuja Thakur ~
सर्व श्रेष्ठ भक्त ही गुरुसेवा कर सकता है !
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्य धिगच्छति ।
तथा गुरु गतां विद्यां शुश्रूषूरधिगच्छति ॥
– मनुस्मृति (२.२२२)
अर्थ : जिस प्रकार खनित्र से(भूमि खोदने वाला यंत्र कुदाल) धरती को खोदता हुआ मनुष्य जल को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार गुरु की सेवा करते रहने से शिष्य गुरु की विद्या को सहज ही प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ : इतिहास साक्षी है, गुरु- शिष्य परंपरा अंतर्गत ऐसे अनेक शिष्य हुए हैं जिन्होंने बिना वेद उपनिषद के पठन के मात्र गुरु सेवा से आत्मज्ञान की कुंजी को प्राप्त कर लिया है । हमारे धर्मशास्त्रों में गुरु के इसी महत्व के बारे में गुणगान किया गया है ।
.
‘मंत्र मूलं गुरूर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा’ एवं ‘गुरु कृपा हि केवल्म शिष्य परम मंगलम’ जैसे सुवचन गुरुसेवा और गुरु आज्ञा का बोध कराते हैं । गुरु सेवा में लीन शिष्य कब अद्वैत भाव में लीन हो जाता है यह शिष्य को भी बोध नहीं होता यह गुरुसेवा का महत्व है ।
.
गुरु सेवा दो प्रकार की होती हैं – सगुण सेवा और निर्गुण सेवा – सगुण सेवा अर्थात गुरु के देह से संबन्धित सेवा करना जैसे गुरु के लिए भोजन बनाना, गुरु के वस्त्र धोना गुरु के कमरे की स्वच्छता करना इत्यादि । निर्गुण सेवा का अर्थ है गुरु के आश्रम की व्यवस्था संभालना, गुरु के कार्य में यथाशक्ति तन, मन धन, बुद्धि कौशल्य और अपने सूक्ष्म इंद्रियों के माध्यम से योगदान देना ।
.
गुरुसेवा करते समय कुछ तथ्यों का ध्यान रखान चाहिए ~
• गुरु सेवा कृतज्ञता के भावसे आनंदपूर्वक करना चाहिए, इस ब्रह्मांड में इतने जीव हैं तथापि मुझ जैसे अधम को गुरुसेवा की संधि ईश्वर ने दी इस भाव से गुरुसेवा करना चाहिए ।
• गुरुसेवा करते समय देहभान एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को त्यागकर अर्थात मैं फलां फलां हूं या मुझे इस सेवा से शारीरिक कष्ट होगा, समाज उलाहना देगा इत्यादि भावनाओं का त्याग कर सेवा में निरंतर निष्काम भाव से मात्र गुरु से प्रेम करने हेतु गुरुसेवा करना चाहिए ।
• गुरुसेवा करनेसे पूर्व प्रार्थना करना चाहिए कि यह सेवा आप ही मुझसे करवा कर ले लें एवं सेवा अचूक, परिपूर्ण एवं निर्धारित कार्य पद्धति एवं समय अनुसार हो अर्थात गुरु को जैसा अपेक्षित है वैसा हो ।
• गुरु आज्ञा ही गुरुसेवा है गुरु की आज्ञा में शिष्य का कल्याण निहित होता है अतः गुरु ने यह आज्ञा क्यों दी इसके स्थानपर उनकी आज्ञा को चरितार्थ कैसे करूँ कि वे प्रसन्न हो जाएं इस भाव से गुरुसेवा करना चाहिए ।
• गुरुसेवा करते समय अनेक बार गुरु सबके समक्ष अपमानित करते हैं, जिससे कि हमारा अहं नष्ट हो, गुरुद्वारा अपमानित होनेका सौभ्गय विरले को मिलता है अतः उनकी अपशब्द भी शिरोधार्य कर आनदपूर्वक सेवरत रहनेवाला जीव भवसागर से मुक्त हो जाता है यह शास्त्र सिद्ध सिद्धांत है ।
• गुरु की सेवा प्रत्येक व्यक्ति या साधक नहीं कर सकता, जिसमें अहं का प्रमाण न्यून हो, जिसमें दैवी गुण जैसे आज्ञापालन, त्याग, समर्पण, सेवाभाव, श्रद्धा, भक्ति एवं शरणागति हो वह ही गुरुसेवा में अखंडता साध्य कर पाता है । गुरुसेवा में लीन शिष्य निरक्षर हो तो भी वह वेदों का ज्ञाता हो जाता है ।
• सर्व सामान्य व्यक्ति को पांच ऋण अवश्य देने होते हैं और वे हैं – देव, ऋषि, पितर, समाज और अतिथि । परंतु सतशिष्य को गुरु सभी ऋणों से मुक्त कर देते हैं और गुरु की कृपा के तेज से शिष्य के अनेक जन्मों के पाप पुण्य नष्ट हो जाते हैं ।
• गुरुसेवक होना अर्थात इस ब्रह्मांड के सर्वोच्च पद को प्राप्त करने समान है !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें