रविवार, 24 अगस्त 2014

= ६६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू सांई कारण मांस का, लोही पानी होइ । 
सूखे आटा अस्थि का, दादू पावै सोइ ॥ 
तन मन मैदा पीसकर, छांण छांण ल्यौ लाइ । 
यों बिन दादू जीव का, कबहूँ साल न जाइ ॥ 
पीसे ऊपर पीसिये, छांणे ऊपर छांण । 
तो आत्म कण ऊबरै, दादू ऐसी जाण ॥ 
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साभार : सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~ 

मेरे सुहृद ! अंतर्मुखी होकर देखें, 
परन्तु इस पर भी अगर आप अपने को सुन्दर न पाओ, 
तो वैसा ही करें जैसा एक "मूर्तिकार" करता है ।
अपनी मूर्ति को सुन्दर बनाने के लिए वह कुछ यहाँ काट फेकता है, 
कुछ वहां चिकना करता है, 
इस रेखा को कुछ हल्की बनता है, 
तो उस रेखा को कुछ ज्यादा निखारता है, 
और तब तक इस कार्य में जुटा रहता है जब तक मूर्ति का चेहरा सौंदर्य की आभा से आलोकित नहीं हो जाता । 

ठीक यही कार्य आपको करना है, 
उसे काट -छाँटकर सीधा कर डाले । 
अपने समस्त व्यक्तित्व को सौंदर्य की एक दीप्ती में ढाल लीजिये । 
अपनी प्रतिभा को तराशना तब तक बन्द न करें जब तक उसमे से परमात्मा के गुणों की आभा विकीर्ण होकर आपको आलोकित न कर दे । आप शुभ - मंगल हो यही परमशिव से प्रार्थना है ।

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