रविवार, 28 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ७

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*ठगे जिनि शंकर बिधाता इन्द्र देव मुनि,*
*आपनौ ऊ अधिपति ठग्यौ जिनि चन्द है ।* 
*और जोगी जंगम संन्यासी सेख कौंन गिनै,* 
*सबही कौं ठगत, ठागावै न सुछंद है ॥* 
*तापस ऋषिश्वर सकल पचि पचि गये,* 
*काहू कै न आवै हाथ ऐसौ या पै बंद है ।* 
*सुन्दर कहत बस कौंन बिधि कीजै ताहि,* 
*मन सौ न कोऊ या जगत मांहि रिन्द है ॥७॥* 
*मन एक अनुपम ठग* : जिसने शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, देवता, मुनि - सभी को समय समय पर ठगा है, यहाँ तक अपने अधिपति चन्द्रदेव को भी उसने नहीं छोड़ा । 
तथा समय समय पर जितने जोगी, जंगम, सन्यासी, शेख या अन्य कितने साधु महात्माओं की गणना की जाय - इस मन ने सभी को ठगा है, ऐसा कोई नहीं बचा जो इसके द्वारा जो ठगाया न गया हो, इससे स्वच्छन्द(मुक्त) रहा हो । 
बड़े बड़े तपस्वी एवं ऋषि इस का निग्रह करते करते थक गये, किन्तु इसको मल्लविद्या के ऐसे ऐसे दाव पेच आते हैं की उनका प्रयोग करता हुआ, उनमें से किसी के वश में न हो सका । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस मन को किस उपाय से अपने अधीन किया जाये ? हम तो यही समझते हैं कि मन से बढ़कर इस संसार में कोई अन्य शैतान(रिंद) नहीं है ॥७॥
(क्रमशः)

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