॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*७. विश्वास का अंग*
.
*तेरै तौ अधीरज तूं आगिली ही चिंत करे,*
*आज तौ भर्यौ है पेट काल्हि कैसी होइ है ।*
*भूखौ ही पुकारै अरु दिन उठि खातौ जाइ,*
*अति ही अज्ञानी जाकि मति गई खोइ है ॥*
*ताकौं नहिं जानै शठ जाकौ नांम विश्वंभर,*
*जहाँ तहां प्रगट सबनि देत सोइ है ।*
*सुन्दर कहत तोहि वाकौ तौ भारौसौ नांहि,*
*एक बिसवास बिन याहि भांति रोइ है ॥११॥*
तूँ तो मुझे बहुत ही अधैर्यशाली दिखायी दे रहा है; क्योंकि तूँ अपने भविष्य की चिन्ता में ही दुःखी रहता है कि आज तो मेरा पेट भरा है, परन्तु कल मेरा क्या होगा ।
इस तरह तूँ 'मैं भूखा हूँ' - यही रट लगाये रखता है, तथा प्रातः काल होते ही खाने के लिये दौड़ पड़ता है । इस तरह तूँ बहुत बड़ा अज्ञानी लगता है, तेरी बुद्धि भ्रान्त हो चुकी है ।
अरे ! तूँ उस प्रभु को को नहीं जानता है क्या, जिस का नाम ही 'विश्वम्भर' है जो जहाँ तहाँ उपस्थित होकर वह स्वयं सबको यथायोग्य देता ही है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - तुझे उस प्रभु विश्वम्भर पर विश्वास नहीं है । इस एक विश्वास के बिना तूँ जीवनपर्यन्त इसी तरह रोता रह जायगा ! ॥११॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें