सोमवार, 8 सितंबर 2014

७. विश्वास का अंग ~ ११


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
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*तेरै तौ अधीरज तूं आगिली ही चिंत करे,*
*आज तौ भर्यौ है पेट काल्हि कैसी होइ है ।* 
*भूखौ ही पुकारै अरु दिन उठि खातौ जाइ,* 
*अति ही अज्ञानी जाकि मति गई खोइ है ॥* 
*ताकौं नहिं जानै शठ जाकौ नांम विश्वंभर,* 
*जहाँ तहां प्रगट सबनि देत सोइ है ।* 
*सुन्दर कहत तोहि वाकौ तौ भारौसौ नांहि,* 
*एक बिसवास बिन याहि भांति रोइ है ॥११॥* 
तूँ तो मुझे बहुत ही अधैर्यशाली दिखायी दे रहा है; क्योंकि तूँ अपने भविष्य की चिन्ता में ही दुःखी रहता है कि आज तो मेरा पेट भरा है, परन्तु कल मेरा क्या होगा । 
इस तरह तूँ 'मैं भूखा हूँ' - यही रट लगाये रखता है, तथा प्रातः काल होते ही खाने के लिये दौड़ पड़ता है । इस तरह तूँ बहुत बड़ा अज्ञानी लगता है, तेरी बुद्धि भ्रान्त हो चुकी है । 
अरे ! तूँ उस प्रभु को को नहीं जानता है क्या, जिस का नाम ही 'विश्वम्भर' है जो जहाँ तहाँ उपस्थित होकर वह स्वयं सबको यथायोग्य देता ही है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - तुझे उस प्रभु विश्वम्भर पर विश्वास नहीं है । इस एक विश्वास के बिना तूँ जीवनपर्यन्त इसी तरह रोता रह जायगा ! ॥११॥
(क्रमशः)

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