सोमवार, 29 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ८

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*रंक कौं नचावै अभिलाष धन पाइवै की,*
*निस दिन सौचि करि ऐसैं ही पचतु है ।* 
*राजा ही नचावै सब भूमि हू कौ राज लेव,* 
*और ऊ नचावै जोई देह सौं रचतु है ॥* 
*देवता असुर सिद्ध पन्नग सकल लोक,* 
*कीट पसु पंखी कहू कैसैं कै बचतु है ।* 
*सुन्दर कहत काहु संत की कही न जाइ,* 
*मन कै नचायै सब जगत नचतु है ॥८॥* 
*मन सभी को नचाने वाला* : यह किसी अति दरिद्र को धन पाने की इच्छा जाग्रत् कर यथेच्छ नचाता है । 
किसी राजा में समस्त पृथ्वी को भूमि प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत् कर उसको भी यथेच्छ नाच नचाता है । वे अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु दिन रात श्रम करते रहते हैं । किसी का नारी देह प्राप्ति की इच्छा जाग्रत् कर उसके लिए नचाता रहता है । 
यों इसकी ओर से देवता, असुर, सिद्ध, नाग(पाताल) आदि लोकवासी कीट, पशु, पक्षी आदि में से कोई नहीं बचा । 
*महात्मा श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - किसी सन्त के विषय में तो हम कह नहीं सकते, शेष संसार के सभी प्राणी इस मन के नचाये हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों के वश में होकर नाच रहे हैं ॥८॥
(क्रमशः)

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