रविवार, 19 अक्टूबर 2014

= “द्वि विं. त.” ३१/३२ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“द्विविंशति तरंग” ३१/३२)*
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*चारसो वर्ष बाद पन्थ में हलचल -* 
चार शताब्द भये पुनि होवहिं, 
पंथ प्रथा कछु हलचल भाई ।
जो गुरुवाणि धरे विश्‍वास रु, 
पंथहि नेम गहे दृढताई ।
रोपि रहे पग ले गुरु नामहिं, 
लाज रहे तिन राम सहाई ।
यो निज पंथ थप्यो हरि आपहिं, 
सूरज चंद धरा लगि स्थाई ॥३१॥ 
चार सौ वर्ष बाद पंथ प्रथा में कुछ हलचल होवेगी । संत - मर्यादा - पालन में शिथिलता आ जावेगी । उस समय जो जन गुरुवाणी में श्रद्धा रखेंगे, पंथ मर्यादा की दृढ़ता से धारण करते रहेंगे, गुरु के नाम पर रुके रहेंगे - उनकी लाज, रामजी रखेंगे, और सदा सहायता करेंगे । यह ब्रह्म पंथ, श्री हरि की प्रेरणा से स्थापित हुआ है, इसकी सत्ता सूर्य चन्द्र पृथ्वी की स्थिति तक बनी रहेगी ॥३१॥ 
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*दादू गुरुद्वारों की स्थापना आदेश -* 
जो गुरु आश्रम धाम थपें जन, 
सेवक भक्ति करें अधिकाई ।
पुण्य प्रताप सरे सब कामना, 
आवत सम्पति भेंट भराई ।
जो सुविचार निवार - विकारहिं, 
सम्पति को उपकार लगाई ।
पाठ कथा गुरु वाणि भये नित, 
साधु लहें यश पुण्य भलाई ॥३२॥ 
जो संत गुरु आश्रम(दादू द्वारा) की स्थापना करके रहेंगे, सेवक भक्त उनकी बहुत सेवा करेंगे । संतों के पुण्य प्रताप से भक्त सेवकों की मनोकामनायें पूर्ण होती रहेंगी, जिसके कारण आश्रमों में भेंट सम्पत्तियाँ आती रहेंगी । जो सुजान संत मलविकारों का निवारण करते हुये सुविचारपूर्वक उस भेंट - सम्पत्ति को उपकार में लगाते रहेंगे, गुरुवाणी का पाठ और कथा कराते रहेंगे, उनका यश और पुण्य बढ़ता रहेगा ॥३२॥ 
(क्रमशः)

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