सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

*आदि अन्त आगे रहे*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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आदि अन्त आगे रहे, एक अनूपम देव ।
निराकार निज निर्मला, कोई न जाने भेव ॥२५२॥
अविनाशी अपरंपरा, वार पार नहिं छेव ।
सो तू दादू देख ले, उर अन्तर कर सेव ॥२५३॥
(परिचय अंग ४)
आमेर निवास के समय एक दिन दादूजी को संसार का अन्त देखने को संकल्प जब हुआ तब ध्यान द्वारा अपने वृत्ति को चलायी तो अनन्त कोटि ब्रह्मांड देखने में आये पर उनका अन्त प्राप्त नहीं हो सका फिर भी वृत्ति से आगे बढ़ना चाहा तब पराशब्द हुआ इस मायिक संसार का किसी ने भी पार नहीं पाया है । तुम यह व्यर्थ का परिश्रम छोड़ दो । तब दादूजी ने अपनी वृत्ति को रोककर उक्त साखियां कही थीं । और परब्रह्म में ही वृत्ति लगाई थी ।

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