सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

= “द्वि विं. त.” ३५/३७ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“द्विविंशति तरंग” ३५/३७)*
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*सोरठा*
सतगुरु वचन सुजान, शिष्य भये प्रमुदित सभी ।
दीनबन्धु निज थान, राम निरंजन जाप रत ॥३५॥ 
सद्गुरु श्री दादूजी के वचन - उपदेशों को सुनकर सभी शिष्य संत प्रमुदित हो गये, और गुरु - आज्ञा के अनुसार अपने गन्तव्य स्थानों की ओर पधार गये । श्री दादूजी भी निरंजन राम के ध्यान - स्मरण में रत हो गये ॥३५॥ 
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*तरंग सारांश ~ इन्दव छन्द*
वर्ष तपे गुरु, भूप रखे पुनि, 
दर्शन पाय रु भोजन लेवे ।
जीवन मुक्त भये निज सेवक, 
भोज नरायण श्री गुरु सेवे ।
शिष्य करें विनती गुरु भावहिं, 
दादु दयालु सबै सुख देवे ।
माधौ कहे गुरुधाम थप्यो निज, 
साधुहिं संग सुहावन भेवे ॥३६॥ 
भूप नरायण भोज कुमार जु, 
श्री गुरुदेव पुरी पधराये ।
पूरब संत मिले गुरु भेंटत, 
ज्ञान विचार भयो हरषाये ।
शिष्यहिं प्रश्‍न दियो गुरु उत्तर, 
भेष धरे सबके मन भाये ।
माधवदास रची रचना हरि, 
याहि तरंग सुमंगल गाये ॥३७॥ 
इस तरंग में श्री दादूजी की तपस्या, राजा द्वारा अपने नगर में लाना संत दर्शन के पश्‍चात् नित्य भोजन ग्रहण करना, जीवन्मुक्त के समान मोह रहित रहते हुये गुरु सेवा करना, शिष्यों की विनती, गुरु जी द्वारा उपदेश, गुरुधाम की स्थापना, सत्संग, पूर्वकालिक संतों के साथ ज्ञानचर्चा शिष्यों के प्रश्‍न, गुरुदेव द्वारा समाधान, पंथ की वेशभूषा का निधारण, आदि का वर्णन हुआ है । माधवदास कहते हैं - श्री हरि प्रेरणानुसार जो संत लीलायें हो रही हैं, उन्हीं का मंगलमय वर्णन मैं कर रहा हूँ ॥३६ - ३७॥ 
इति माधवदास विरचिते श्री संतगुण सागरामृत शिष्य प्रश्‍नोतर निरूपण
॥ इति द्वार्विशति तरंग संपूर्ण ॥२२
(क्रमशः)

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