सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

= “द्वि विं. त.” ३३/३४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“द्विविंशति तरंग” ३३/३४)*
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*गुरुद्वारों में सम्पत्ति जो भी आवे हरि के हेत लगावे* 
सम्पति लागि विकार भये पुनि, 
भोग विलास रहे उलझाई । 
होवत पुण्यहिं क्षीण नशे धन, 
आश्रम धाम विलुप्त रहाई । 
राग रु द्वेष असूय रु मत्सर, 
काम रु क्रोधहिं डेरा बनाई । 
नाम जहाज विसारि गिरे, 
भव सागर नर्क महा दुख पाई ॥३३॥ 
और जो संत भेंट - सम्पत्ति का संग्रह करके भोग विलास में उलझ जावेंगे, वहाँ अनेक विकार राग द्वेष, ईर्ष्या मात्सर्य काम क्रोध आदि डेरा लगा लेंगे । उन आश्रमों का पुण्य और धन धीरे - धीरे क्षीण हो जायेगा । वे आश्रम विलुप्त हो जावेंगे । ऐसे आश्रमों के जन गुरु नाम का जहाज भूलकर भवसागर के महा दु:खमय घोर नरक में गिर पड़ेंगे ॥३३॥ 
*सम्पत्ति को हरि हेत लगाने से मोक्ष की प्राप्ति* 
जो जन शुद्ध विचार धरे मन, 
भक्ति करे प्रभु का गुण गावे । 
आवत सम्पति भेंट तथा धन, 
संतन्ह विप्रन्ह धेनु चरावे । 
मोह धरे नहिं, ईश्‍वर अर्पित, 
दीन दुखी उपकार लगावे । 
श्रीगुरु शब्द धरे विश्‍वास जु, 
आप तिरे जन पार तिरावे ॥३४॥ 
नरक निसाणी, स्वर्ग विमान, 
रज्जब रिद्धि के, दोय बखान । 
जो सज्जन मन में शुद्ध विचार रखते हुये प्रभु भक्ति करेंगे, ईश्‍वर के गुणगान करेंगे, भेंट में आई हुई द्रव्य सम्पत्ति को धेनु विप्र साधु संतों के निमित्त धर्म में लगायेंगे, उस सम्पत्ति में मोह नहीं रखते हुये ईश्‍वर अर्पित करते रहेंगे, दीन - दुखियों के निमित्त उपकार में लगायेंगे, गुरुवाणी के शब्दों पर विश्‍वास धरेंगे, वे स्वयं भी तिर जावेंगे, तथा अन्य सेवक भक्तों को भी तार देंगे ॥३४॥ 
(क्रमशः)

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