शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

= “द्वि विं. त.” १३/१४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“द्विविंशति तरंग” १३/१४)*
*श्री दादूजी का स्वरूप पकडने में नहीं आता था -* 
गुरु कहें सुनो शिष्य, राखिये स्वरूप दृश्य, 
प्रश्‍नोत्तर पाय रहो धाम सुख कंद को । 
आवे नहीं बास याहीं, रूप पंच तत्व नाहीं, 
तेज पुंज जानो स्वरूप चिदानन्द को । 
मन न सँदेह धरो, रूप पर हाथ फेरो, 
दरपन छाँव वपु निरमल चंद को । 
शिष्य हाथ धरें रूप, दीप लोय सम येह, 
दृष्टि हु परत पुनि मुष्टि हू न बंद का ॥१३॥ 
तब गुरुदेव श्री दादूजी ने फरमाया - हे शिष्य ! दृश्यमान मेरा यह स्वरूप तेजोमय है, इसे सुरक्षित रख लो । आवश्यकतानुसार इससे प्रश्‍नोत्तर करते रहना और अपने धाम पर सुखपूर्वक रहना । इस स्वरूप में दुर्गन्ध भी नहीं आवेंगी, क्योंकि यह भौतिक पंच तत्त्वों से निर्मित नहीं है । यह स्वरूप तो सच्चिदानन्द परम ब्रह्म का तेजोमय अंश है । सन्देह निवारण के लिये मेरे स्वरूप पर हाथ फिराकर देखो । दीपक की लौ के समान गुरुदेव के शरीर पर हाथ फिराकर देखा । दीपक की लौ के समान गुरुदेव के स्वरूप में से उनका हाथ आर पार निकल गया । गुरुदेव श्री दादूजी का स्वरूप दृष्टिगोचर तो होता था, किन्तु मुष्टि में पकड़ा नहीं जा रहा था ॥१३॥ 
*श्री दादूजी का स्वरूप तेज पुंज का था -* 
शिष्य कहे स्वामी रूप, तेज पुंज धारे रूप, 
ऐसी करामात देखि दौरत जगत है ॥ 
लोग कहे दादूपंथी, शवहिं उपास वृत्ति, 
प्रेत पूज रहे नित, निन्दा ही करत है ॥ 
स्वामी कहें दीप धरो, प्रश्‍नोत्तर पूरे करो, 
बाती तेल बिना दिव्य ज्योति ही जरत है । 
स्वामी जी की गिरा सुनि, मन में विचारे पुनि, 
शक्ति की उपासना में दादू पंथी रत है ॥१४॥ 
(क्रमशः) 

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