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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.१६१. भ्रम विध्वंसन । उदीक्षण ताल
निरंजन अंजन कीन्हा रे, सब आतम लीन्हा रे ॥टेक॥
अंजन माया अंजन काया, अंजन छाया रे ।
अंजन राते अंजन माते, अंजन पाया रे ॥१॥
अंजन मेरा अंजन तेरा, अंजन मेला रे ।
अंजन लीया अंजन दीया, अंजन खेला रे ॥२॥
अंजन देवा अंजन सेवा, अंजन पूजा रे ।
अंजन ज्ञाना अंजन ध्याना, अंजन दूजा रे ॥३॥
अंजन वक्ता अंजन श्रोता, अंजन भावै रे ।
अंजन राम निरंजन कीन्हा, दादू गावै रे ॥४॥
एक दिन आमेर नरेश मानसिंह ने कहा- स्वामिन् ! गलता के संत तो मूर्ति पूजा करते हैं और मूर्ति पूजा का ही उपदेश भी करते हैं किन्तु आप तो न मूर्ति पूजा करते हैं और न मूर्ति पूजा का उपदेश ही करते है, सौ क्या बात है ? आप मुझे समझाइये । तब दादूजी ने उक्त १६१ का पद सुनाकर समझाया था ।
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अन्तःसाधना प्रभु को अतिप्रिय होती है, यह कहकर -
१९१. सांच झूठ निर्णय प्रतिपाल
सांई को साच पियारा ।
साचै साच सुहावै देखो, साचा सिरजनहारा ॥टेक॥
ज्यों घण घावां सार घड़ीजे, झूठ सबै झड़ जाई ।
घण के घाऊँ सार रहेगा, झूठ न मांहि समाई ॥१॥
कनक कसौटी अग्नि-मुख दीजे, पंक सबै जल जाई ।
यों तो कसणी सांच सहेगा, झूठ सहै नहिं भाई ॥२॥
ज्यों घृत को ले ताता कीजे, ताइ ताइ तत्त कीन्हा ।
तत्तैं तत्त रहेगा भाई, झूठ सबै जल खीना ॥३॥
यों तो कसणी साच सहेगा, साचा कस कस लेवै ।
दादू दर्शन सांचा पावै, झूठे दरस न देवै ॥४॥
सुनाया फिर राजा ने पू़छा- हमारे जैसे मानवों को कौन साधन उचित है ?
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तब दादूजी ने -
१६८. नाम महिमा । त्रिताल
अहो नर नीका है हरि नाम ।
दूजा नहीं राम बिन नीका, कहले केवल राम ॥टेक॥
निर्मल सदा एक अविनाशी, अजर अकल रस ऐसा ।
दिढ़ गहि राख मूल मन मांहीं, निरख देख निज कैसा ॥१॥
यहु रस मीठा महा अमीरस, अमर अनूपम पीवे ।
राता रहै प्रेम सौं माता, ऐसे जुग-जुग जीवे ॥२॥
दूजा नहीं और को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझे ।
दादू मोटे भाग हमारे, दास विवेकी बूझे ॥३॥
उक्त पद सुनकर राजा ने पू़छा - ईश्वर नाम चिन्तन से ईश्वर ही प्राप्त होता है या अन्य कु़छ भी मिलता है ? संतों के संग में रहकर निष्काम भाव से चिन्तन करने से ही ईश्वर मिलते हैं और सकामभाव से चिन्तन करने पर कामनायें मिलती हैं ।
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