#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम ।
दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥
जहाँ राम तहाँ संतजन, जहाँ साधु तहाँ राम ।
दादू दोन्यूं एकठे, अरस परस विश्राम ॥
दादू हरि साधु यों पाइये, अविगति के आराध ।
साधु संगति हरि मिलै, हरि संगति तैं साध ॥
दादू राम नाम सौं मिलि रहै, मन के छाड़ि विकार ।
तो दिल ही मांहैं देखिये, दोनों का दीदार ॥
साधु समाना राम में, राम रह्या भरपूर ।
दादू दोनों एक रस, क्यों कर कीजै दूर ॥
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साभार : Gauri Mahadev ~
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भक्त के लक्षण -१-
भगवान के भक्तों का बड़ा महत्व है । वे जगत के लिए आदर्श होते है; क्योकि भगवद्भक्ति के प्रताप से उनमे दुर्लभ दैवी गुण अनिवार्यरूप से प्रकट हो जाते हैं, जो उनके लिए स्वाभाविक लक्षण होते हैं । भक्त का स्वरुप जानने के लिये उन लक्षणों का जानना आवश्यक है । उनमे से कुछ ये हैं।
१. भक्त अज्ञानी नहीं होता, वह भगवान के प्रभाव, गुण, रहस्य को तत्व से जानने वाला होता है । प्रेम के लिए ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है । किसी न किसी अंश में जाने बिना उससे प्रेम नहीं हो सकता और प्रेम होने पर ही उसका गुह्मयतम यथार्थ रहस्य जाना जाता है । भक्त भगवान के गुह्मयतम रहस्य को जानता है, इसलिए भगवान के प्रति उसका प्रेम उत्तरोतर बढ़ता ही रहता है । भगवान रससार है । उपनिषद भगवान को ‘रसो वै स:’ कहते है । इस प्रेम में भी द्वैत नहीं भासता ! प्रेम की प्रबलता से ही राधा जी कृष्ण बन जाती हैं और श्री कृष्ण राधा जी । कबीर साहब कहते हैं –
जब में था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नायँ ।
प्रेम-गली अति साँकरी, यामे दो न समायँ ।।
वस्तुत: ज्ञानी और भक्त की स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता । भेद इतना ही है, ज्ञानी ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ कहता है और भक्त ‘वासुदेव: सर्वमिति’ अथवा गोसाइजी की भाषा में वह कहता है –
सिय राममय सब जग जानी ।
करऊँ प्रनाम जोरि जग पानी ॥ .........शेष अगले में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी,
भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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