रविवार, 19 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ २

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक१ को अंग* 
*निर्मात्रिक छन्द -*
*जप तप करत धरत ब्रत जत सत,*
*मन बच क्रम भ्रम कषट सहत तन ।* 
*बलकल बसन अशन फल पत्र जल,* 
*कसत रसन रस तजत बसत वन ॥* 
*जरत मरत नर गरत परत सर,* 
*कहत लहत हय गय दल बल धन ।* 
*पचत पचत भव भय न टरत शठ,* 
*घट घट प्रगट रहत न लखत जन ॥२॥* 
जप तप एवं विविध व्रत धारण करते हुए, यम नियम(योग) का अभ्यास करते हुए, मानसिक एवं वाचसिक कर्मों के भ्रम में पड़ कर शारीरिक कष्ट सहते हुए, 
वल्कल या मृगचर्म धारी, वस्त्रधारी, फलाहारी, पत्राहारी(या दुग्धाहारी) एवं जलाहारी रहकर जिह्वेन्द्रिय पर निग्रह करते हुए, 
अग्निदाह एवं गंगा नदी आदि में डूब कर मरने वाले साधक पुरुष हाथी घोड़ा सेना सम्पति की कामना से अनेक जन्मों तक विविध साधनाओं में अपना समय नष्ट करते हैं ।
तो भी उन मूर्खों की इस जन्म मरण परम्परा(भवबन्धन) से मुक्ति नहीं हो पाती । ऐसे मूर्ख जन सर्वजगद्व्यापी(घट घट व्यापक) परम ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं कर पाते ॥२॥ 
[ छन्द रचना की विवशता से 'सुन्दर' का आभोग नहीं लगा है । ] 
(क्रमशः)

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