॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*११. मन को अंग*
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*कबहूंक साध होत कबहूंक चोर होत,*
*कबहूंक राजा होत कबहूंक रंक सौ ।*
*कबहूंक दीन होत कबहूं गुमांनी होत,*
*कबहूंक सूधौ होत कबहूंक बंक सौ ॥*
*कबहूंक कामी होत कबहूंक जती होत,*
*कबहूंक निर्मल होत कबहूंक पंक सौ ।*
*मन कौ स्वरूप ऐसौ सुन्दर फटिक जैसौ,*
*कबहूं क सूर होत कबहूं मयंक सौ ॥१९॥*
हमारे इस मन का व्यवहार कभी साधुओं के समान सत् हो जाता है, कभी चौरों के समान असत् । कभी यह राजा के समान दानवृत्ति स्वीकार कर लेता है, कभी किसी भिखारी की तरह याच्ञावृति ।
कभी यह असीमित दीनता दिखाने लगता है, कभी अभिमान प्रकट करने लगता है । कभी यह बहुत सरल स्वभाव वाला बन जाता है तो कभी यह दुष्ट(वंक) प्रकृति का ।
कभी यह कामभोगों में लिप्त हो जाता है, कभी यतियों(त्यागियों) का आचरण करने लगता है । कभी विकारों से रहित(स्वच्छ) हो जाता है, कभी मलिन दोषों से युक्त हो जाता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी इस मन का रूप वस्तुतः स्फटिक के समान स्वच्छ दिखायी देता है, परन्तु कभी यह सूर्य के समान उष्ण तथा कभी चन्द्रमा के समान शीतल प्रतीत होता है ॥१९॥
(क्रमशः)
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