गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भुरभुरा प्रसंग*
३१. मन प्रबोध । पंजाबी त्रिताल
मन रे राम बिना तन छीजे ।
जब यहु जाइ मिलै माटी में, तब कहु कैसे कीजै ॥टेक॥
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुखदाई ।
माया बेलि विषय फल लागे, ता पर भूल न भाई ॥१॥
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूलै ।
यहु संसार सेमल के सुख ज्यों, ता पर तूँ जनि फूलै ॥२॥
अवसर यह जान जगजीवन, समझ देख सचु पावै ।
अंग अनेक आन मत भूलै, दादू जनि डहकावै ॥३॥
दादूजी नला से क्रांजल्या होते हुये पांच दिन में भुरभुरे ग्राम में पहुँचे । कारण ? भुरभुरे के राघवदासजी का अति आग्रह था कि आप कभी भुरभुरे पधारें । अतः राघवदासजी के ही पहले पधारे थे और राघवदासजी के सामने बैठे थे । दादूजी ने उनके मन के भाव को जानकर उनको उक्त ३१ का पद सुनाया था । राघवदासजी ने उक्त पद के अनुसार ही साधन करने का पूर्ण प्रयत्न किया था । ये सौ शिष्यों में है ।

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