गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ ११

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग* 
*जौ कोउ कष्ट करै बहुत भांतिनि,*
*जात अज्ञान नहीं मन केरौ ।* 
*ज्यौं तम पूरि रह्यौ घर भीतर,*
*कैसैंहु दूर नहोत अंधेरौ ॥* 
*लाठिनि मारिये ठेलि निकारिये,*
*और उपाय करै बहुतेरौ ।* 
*सुन्दर सूर प्रकाश भयौ तब,*
*तौ कतहूं नहिं देखिये नेरौ ॥११॥* 
कोई साधक कितनी भी अत्यधिक क्लेशकारक तपस्या क्यों न करे जब तक उस के मन अज्ञान निवृत्त न हो, तब तक उसका कोई लाभ न होगा । 
जैसे घर का अन्धकार, अन्य कितने भी उपाय कीजिये, निवृत्ति नहिं हुआ करता; 
भले ही उसे लाठियों से पीटिये या उसे हटाने अन्य कोई अपूर्व उपाय करते रहिये । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह अन्धकार सूर्य का प्रकाश होने पर ही निवृत्त हो पाता है, फिर वह समीप में कहीं दिखायी नहीं देता । इसी तरह, वासना त्यागने पर अज्ञानान्धकार नष्ट हो पायगा ॥११॥ 
(क्रमशः)

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