सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २१

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*सुख मांनै दुःख मांनै सम्पति बिपति मांनै,*
*हर्ष मांनै शोक मांनै मांनै रंक धन है ।* 
*घटि मांनै बढ़ि मांनै शुभ हू अशुभ मांनै,* 
*लाभ मांनै हानि मांनै याहि तैं कृपन है ॥* 
*पाप मांनै पुन्य मांनै उत्तम मध्यम मांनै,* 
*नीच मांनै ऊंच मांनै मेरौ तन है ।* 
*सुरग नरक मांनै बंध मांनै मोक्ष मांनै,* 
*सुन्दर सकल मांनै तातैं नांम मन है ॥२१॥* 
*मन का लक्षण* : यह(मन) कहीं सुख मानता है, कहीं दुःख, कहीं सम्पति मानता है, कही विपत्ति; कहीं हर्ष मानता है, कहीं शोक; कभी स्व को निर्धन मानता है, कभी धनवान् । 
कभी अपने को किसी से कम मानता है, कभी किसी से अधिक । कभी किसी को शुभ मानता है, कभी किसी को अशुभ । कभी कहीं लाभ मानता है, कभी कहीं हानि । इसी से यह कृपण(मतिमन्द) कहलाता है ।
यह कहीं पाप मानता है, कहीं पुण्य; किसी को उत्तम मानता है, किसी को ऊँचा । कभी यह अपने शरीर में ही सर्वाधिक ममत्व मान लेता है । 
यह कहीं स्वर्ग मान बैठता है, कहीं नरक; कहीं स्वकीय बन्धन मान बैठता है, कहीं मोक्ष । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमारा यह मन इस तरह की सभी बातें मानता रहता है, अतः इसको 'मन' कहते हैं ॥२१॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें