॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*११. मन को अंग*
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*मनहर छन्द -*
*कबहूं क हंसि उठै कबहूं क रोइ देत,*
*कबहूं बकत कहूं अंत हू न लहिये ।*
*कबहूं क खाइ तौ अघाइ नहिं काहू करि,*
*कबहूं क कहै मेरे कछु नहिं चाहिये ॥*
*कबहूं आकाश जाइ कबहूं पाताल जाइ,*
*सुन्दर कहत ताहि कैसैं करि गहिये ।*
*कबहूं क आइ लागै कबहूं उतरि भागै,*
*भूत के से चिन्ह करै ऐसो मन कहिये ॥१७॥*
*मन भूत-प्रेत के तुल्य* : हमारे इस मन के क्रियाकलाप भूत प्रेत के समान हो गये हैं ।
कभी यह हँसता है, कभी यह रोता है, कभी यह बोलने लगता है तो इतना प्रलाप करने लगता है कि उसकी कोई सीमा ही नहीं दिखायी देती ।
कभी खाने लगता है तो इतना खाता जाता है कि इसका पेट ही नहीं भरता । कभी कहता है कि मझे कुछ नहीं चाहिए, मैं सर्वथा सन्तुष्ट(तृप्त) हूँ ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी आकाश में उड़ता है, तो कभी पाताल की ओर जाने को मुख कर लेता है । कभी स्वस्थ हो जाता है तो कभी चन्चल हो उठता है । ये सब भूत प्रेत से आविष्ट के लक्षण हैं । हमारे मन की यही दशा है ॥१७॥
(क्रमशः)
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