बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १७


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*मनहर छन्द -* 
*कबहूं क हंसि उठै कबहूं क रोइ देत,* 
*कबहूं बकत कहूं अंत हू न लहिये ।* 
*कबहूं क खाइ तौ अघाइ नहिं काहू करि,* 
*कबहूं क कहै मेरे कछु नहिं चाहिये ॥* 
*कबहूं आकाश जाइ कबहूं पाताल जाइ,* 
*सुन्दर कहत ताहि कैसैं करि गहिये ।* 
*कबहूं क आइ लागै कबहूं उतरि भागै,* 
*भूत के से चिन्ह करै ऐसो मन कहिये ॥१७॥* 
*मन भूत-प्रेत के तुल्य* : हमारे इस मन के क्रियाकलाप भूत प्रेत के समान हो गये हैं । 
कभी यह हँसता है, कभी यह रोता है, कभी यह बोलने लगता है तो इतना प्रलाप करने लगता है कि उसकी कोई सीमा ही नहीं दिखायी देती । 
कभी खाने लगता है तो इतना खाता जाता है कि इसका पेट ही नहीं भरता । कभी कहता है कि मझे कुछ नहीं चाहिए, मैं सर्वथा सन्तुष्ट(तृप्त) हूँ । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी आकाश में उड़ता है, तो कभी पाताल की ओर जाने को मुख कर लेता है । कभी स्वस्थ हो जाता है तो कभी चन्चल हो उठता है । ये सब भूत प्रेत से आविष्ट के लक्षण हैं । हमारे मन की यही दशा है ॥१७॥
(क्रमशः)

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