बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

*बारह हजारी संतदास*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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७३. मनसा गायत्री । राज मृगांक ताल
अवधू ! कामधेनु गहि राखी,
वश कीन्हीं तब अमृत स्रवै, आगै चार न नाखी ॥टेक॥
पोषंतां पहली उठ गरजै, पीछें हाथ न आवै ।
भूखी भलै दूध नित दूणा, यों या धेनु दुहावै ॥१॥
ज्यों ज्यों खीण पड़ै त्यों दूझै, मुक्ता मेल्यां मारै ।
घाटा रोक घेर घर आणैं, बांधी कारज सारै ॥२॥
सहजैं बांधी कदे न छूटै, कर्म बंधन छुट जाई ।
काटै कर्म सहज सौं बाँधै, सहजैं रहै समाई ॥३॥
छिन छिन मांहि मनोरथ पूरै, दिन दिन होइ अनन्दा ।
दादू सोई देखतां पावै, कलि अजरावर कंदा ॥४॥
आमेर में एक दिन, एक गुजराती साधु आये थे । उनका नाम संतदास था | उनके साथ एक गाय थी । वे दादूजी के पास बैठे थे । दादूजी के शिष्य संतों ने उनको भोजन करने को कहा तब उन्होंने कहा- में गाय रखता हूं । उसका दूध ही पी लेता हूं तब दादूजी ने उनको उक्त ७३ का पद सुनाया था । 
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उक्त पद का अर्थ समझकर वे दादूजी के शिष्य हो गये थे और कु़छ दिन दादूजी के पास साधन का अभ्यास करके फिर आमेर से कु़छ दूर चाँवड़ा ग्राम में स्थायी रूप से रहकर भजन करने लगे थे । ये ५२ शिष्यों में हैं । इनकी वाणी १२ हजार होने से बारह हजारी संतदास नाम से दादूजी के शिष्यों में प्रसिद्ध हैं ।

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