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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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६. विरह हैरान । त्रिताल
अजहूँ न निकसैं प्राण कठोर ।
दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर ॥टेक॥
चार पहर चारों युग बीते, रैनि गँवाई भोर ।
अवधि गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चित - चोर ॥१॥
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे, मारग चितवत तोर ।
दादू ऐसे आतुर विरहनी, जैसे चंद चकोर ॥२॥
उक्त ६ के पद को बणजारों से अपने ग्राम माँडोठी(हरियाणा) में सुनकर साधुराम, दादूजी के पास आये थे और प्रार्थना की थी - आप मुझे शिष्य बना लीजिये ।
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तब दादूजी ने उनको ४३३ के इस पद से -
४३३. हित उपदेश । चौताल
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे ।
एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे ॥टेक॥
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।
अन्तर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥१॥
हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।
रसना निज नाम निरख, अन्तर गति वासै ॥२॥
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥३॥
उपदेश किया था । फिर साधुरामजी ने दादूजी की आज्ञानुसार अपने ग्राम में ही रहकर भजन किया था और एकात्मभाव से सबको देखते थे ।
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