शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १३

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*इन्द्रिनि के सुख चाहत है मन,*
*लालच लागि भ्रमैं शठ यौं ही ।*
*देखि मरीचि भर्यौ जल पूरन,*
*धावत है मृग मूरिख ज्यौं ही ।* 
*प्रेत पिशाच निशाचर डोलत,*
*भूख मरै नहिं धापत क्यौं ही ।* 
*वायु बघूर हिं कौन गहै कर,*
*सुन्दर दौरत है मन त्यौं ही ॥१३॥* 
रे मूर्ख मन ! तूँ इन्द्रिय - सुखों के लोभ में पड़कर इधर उधर वैसे ही घूम रहा है; 
जैसे कोई प्यासा हरिण मृगमरीचिका को जल समझ कर भ्रांत हुआ इधर उधर दौड़ता है । 
तूँ प्रेत, पिशाच एवं निशाचर(राक्षस) के समान कर्म करता हुआ इधर उधर दौड़ रहा है, फिर भी तेरी भूख नहीं मिटती, तुझे तृप्ति नहीं होती । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जैसे कोई वात्याचक्र(ववंडर = भभूलिया) को मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता, उसी तरह रे मन ! तूँ भी इधर उधर व्यर्थ ही भ्रांत हो रहा है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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