बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १०

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग* 
*ग्रेह तज्यौ अरु नेह तज्यौ पुनि,*
*खेह लगाइ कै देह संवारी ।*
*मेघ सहै सिर शीत सह्यौ तनु,*
*धूप सहै जु पंचागनि बारी ॥* 
*भूख सही रहि रूँख तरै परि,*
*सुंदर दास सहै दुख भारी ।* 
*डासन छाड़ि कैं कासन ऊपरि,*
*आसन मार्यो पै आस न मारी ॥१०॥* 
यद्यपि उसने घर द्वार छोड़ कर पारिवारिक जनों के स्नेह का नाता भी तोड़ लिया, शरीर को भी भस्म भली भाँति संवार लिया है । 
साथ ही वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि दुःख द्वन्द सहता हुआ धुप में बैठ कर पञ्चाग्नि तप भी कर रहा है । 
भूख प्यास सहन करता हुआ वृक्षों के नीचे बैठ कर कठोर दुःख भी सहन कर रहा है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसने इन्द्रासन(= डासन) के समान कोमल बिछौना त्याग कर तृणशय्या को अपना आधार बना कर पद्मासन भी लगा लिया है; इतने पर भी क्योंकि इसके हृदय से सांसारिक भोग की तृष्णा दूर नहिं हुई है, अतः इसका ऐसा कठोर तप भी इसे आध्यात्मिक सुख में कोई वृद्धि नहीं कर पायगा ॥१०॥
(क्रमशः)

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